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क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका
यही है कि हम जो चाहें वह करें और जो न चाहें वह न करें। उत्तर :
१. हम अपनी पर्यायों के क्रम में परिवर्तन किये बिना भी उनके कर्ता हैं; क्योंकि द्रव्य की परिणमन शक्ति के कारण प्रत्येक पर्याय अपने स्वसमय में उत्पन्न होती है और द्रव्य उसरूप परिणमित होता है, इसलिए वह अपनी पर्यायों का कर्ता है।
२. द्रव्य अपनी पर्यायों का कर्ता है या नहीं - इस सम्बन्ध में जिनागम में निम्न दो अपेक्षाओं से कथन किया गया है।
अ) क्षणिक उपादान की अपेक्षा पर्याय तत्समय की योग्यतानुसार होती है; इसलिए पर्याय का कर्ता पर्याय स्वयं है, द्रव्य-गुण नहीं। इस कथन में सत्ता निरपेक्ष अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिकनय घटित होता है। यह पर्याय की स्वतंत्रता की चरम परिणति है, जिससे सहज क्रमनियमित परिणमन सिद्ध होता है।
ब) त्रिकाली उपादान की अपेक्षा पर्याय का कर्ता उसका द्रव्य या गुण है, क्योंकि द्रव्य उसरूप परिणमन करता है। इस कथन में उत्पाद-व्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय एवं सत्ता सापेक्ष अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय घटित होता है।
३. परिणमनशीलता द्रव्य का सहज स्वभाव है और वह पर से निरपेक्ष है। यदि द्रव्य का परिणमन एक समय के लिए भी बन्द हो जाए तो इसका अर्थ यह होगा कि द्रव्य का परिणमन स्वभाव नष्ट हो गया; तब स्वभाव नष्ट होने से स्वभाववान द्रव्य के भी नष्ट होने का प्रसंग आएगा । निरन्तर परिणमन करने में द्रव्य को कोई कठिनाई नहीं है, यही उसका जीवन है।
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क्रमबद्धपर्याय : कुछ प्रश्नोत्तर हो जायेंगे। उत्तर :
१. पर-पदार्थों का परिणमन करने का नाम स्वतन्त्रता नहीं है, अपितु एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता - इस व्यवस्था का नाम स्वतन्त्रता है। प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतन्त्र है, अर्थात् हम पर-पदार्थों का परिणमन नहीं कर सकते - यह पर-द्रव्य की स्वतन्त्रता है । स्वतन्त्रता के नाम पर परपदार्थों को अपने आधीन करने की चेष्टा घोरतम अपराध है। किसी राज्यव्यवस्था में कोई चोरी नहीं कर सकता, किसी की हत्या नहीं कर सकता, तो इसमें चोरों और हत्यारों को पराधीनता भले दिखे, परन्तु इसमें उस राज्य की सुव्यवस्था ही है, पराधीनता नहीं।
२. हमारा सुख-दुःख, जीवन-मरण, भला-बुरा सब कुछ हमारे आधीन है, उसमें किसी का कोई हस्तक्षेप नहीं है - ऐसी प्रतीति करने में हमें परम स्वतंत्रता का अनुभव होगा। अतः क्रमबद्धपर्याय में वस्तु की अनन्त स्वतंत्रता की घोषणा है।
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प्रश्न ९ एवं १० गर्भित आशय :- यदि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की पर्यायों का कर्ता नहीं है तो ज्ञानी ऐसा क्यों कहते हैं कि “मैंने भोजन किया, मैंने पूजन की, मैंने व्यापार किया .........” इत्यादि। क्या वे भी ऐसा मानते हैं? यदि नहीं, तो उनकी मान्यता और कथन में अन्तर क्यों है? उत्तर :
१. ज्ञानी की मान्यता वस्तु-स्वरूप के अनुसार होती है, और वाणी लोक-व्यवहार के अनुसार निमित्त की मुख्यता से होती है। यह मेरा मकान है, यह मेरा पुत्र है, मैं अमुक व्यापार करता हूँ, मैं प्रवचन करता हूँ ...... आदि वचन-व्यवहार करते हुए भी वे मिथ्यादृष्टि नहीं होते, क्योंकि मिथ्यात्व मान्यता
प्रश्न८ गर्भित आशय :- यदि हम पर-पदार्थों का कुछ नहीं कर सकते तो हमारी स्वतन्त्रता क्या रही? हम तो कुछ कर ही नहीं सकते, अतः पराधीन
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