SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रमबद्धपर्याय: निर्देशिका वीर पुरुषों की समझ में ही यह बात आ सकती है। वही जीव सच्चा पुरुषार्थ प्रगट कर सकता है। इसे समझने के लिए पक्ष - व्यामोह से भी मुक्त चाहिए। होना ७० 'धैर्य' अर्थात् जब तक यथार्थ निर्णय न हो जाए तब तक समझने के लिये प्रयत्नशील रहे, बीच में ही प्रयत्न बन्द न कर दे। 'गम्भीरता पूर्वक' अर्थात् प्रत्येक बिन्दु पर गहराई से विचार करें, स्थूल चिन्तन या हंसी-मजाक में बात को उड़ा न दें। 'वीर' अर्थात् अपनी भूल को स्वीकार करके दृष्टि को स्वभाव सन्मुख करने की क्षमता प्रगट करें। 'पक्ष - व्यामोह' अर्थात् किसी व्यक्ति या सम्प्रदाय से प्रभावित होकर निर्णय करना । प्रश्न : ६५. क्रमबद्धपर्याय की स्वीकृति में सम्यक् एकान्त किसप्रकार है? ६६. क्रमबद्धपर्याय का व्यापक स्वरूप क्या है? ६७. काल की नियमितता का विश्वास किसे हो सकता है और किसे नहीं? ६८. जगत् के उतावलेपन की वृति को उदाहरण सहित समझाइये ? ६९. क्रमबद्धपर्याय समझने के लिये क्या करना चाहिए? **** क्रमबद्धपर्याय में.. क्रमबद्धपर्याय सार्वभौमिक सत्य है गद्यांश २६ (पृष्ठ ४८ पैरा ७ से पृष्ठ ५१ तक सम्पूर्ण) . स्पष्ट किया गया है। विचार बिन्दु : १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३२१ से ३२३ में क्रमबद्ध परिणमन-व्यवस्था का स्पष्ट विवेचन होने पर भी कुछ लोग कहते हैं कि यह कथन तो मात्र गृहीत मिथ्यात्व छुड़ाने के लिए किया है, यह सार्वभौमिक सत्य नहीं, क्योंकि जो होना है वही 37 क्रमबद्धपर्याय: एक अनुशीलन होगा - यह विचार हमें पुरुषार्थहीन बनाता है। २. उक्त मान्यता का निराकरण सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्द्रजी वाराणसी ने उक्त गाथाओं के भावार्थ में किया है। सर्वज्ञ के जान लेने से प्रत्येक पर्याय का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव नियत नहीं हुआ; बल्कि नियत होने से ही उन्होंने उसरूप में जाना है । पूर्व पर्याय से चाहे जो उत्तर पर्याय नहीं होती बल्कि नियत उत्तर पर्याय ही प्रगट होती है अन्यथा गेहूँ से आटा, कच्ची रोटी आदि पर्याय के बिना रोटी बनने का प्रसंग आएगा । ७१ ३. कुछ लोग प्रत्येक पर्याय के द्रव्य, क्षेत्र और भाव को नियत मानते हैं। परन्तु काल को नियत मानने से उन्हें नियतवाद और पुरुषार्थ-हीनता का भय लगता है । परन्तु यदि द्रव्य, क्षेत्र और भाव नियत है तो काल-अनियत कैसे हो सकता? यदि काल को अनियत माना जाए तो अर्द्धपुद्गल परावर्तन से अधिक काल संसार - भ्रमण शेष रहने पर भी सम्यक्त्व प्राप्ति हो जाएगी। किन्तु ऐसा मानना आगम विरुद्ध है, अतः काल को भी नियत मानना अनिवार्य है । ४. काल को नियत मानने में पुरुषार्थ व्यर्थ हो जाएगा ऐसा मानना भी मिथ्या है, क्योंकि समय से पहले कार्य होने में पुरुषार्थ की सार्थकता नहीं अपितु समय पर कार्य होने में ही पुरुषार्थ की सार्थकता है, क्योंकि समय पर गेहूँ पकने से किसान का पुरुषार्थ व्यर्थ नहीं होता । ५. जिस द्रव्य की जो पर्याय जिस समय होनी है वह अवश्य होगी - ऐसा जानकर सम्यग्दृष्टि सम्पत्ति में हर्ष और विपत्ति में विषाद नहीं करता, तथा सम्पत्ति पाने के लिए और विपत्ति को दूर करने के लिए देवी-देवताओं के आगे गिड़गिड़ाता भी नहीं है। इसप्रकार कार्तिकेयानुप्रेक्षा का उक्त कथन सार्वभौमिक सिद्ध होता है, तथा पुरुषार्थ की सार्थकता भी सिद्ध होती है। ६. एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का भला बुरा नहीं कर सकता, तथा जो पर्याय जब जैसी जिस विधि से होनी है, वैसी ही होगी, उसे इन्द्र तो क्या जिनेन्द्र भी नहीं पलट सकते; तो फिर व्यन्तर आदि साधारण देवी-देवताओं की क्या सामर्थ्य है ?
SR No.008357
Book TitleKrambaddha Paryaya Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size244 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy