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इसीप्रकार चरणानुयोग..
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त्रिलक्षण परिणाम पद्धति गद्यांश १२
क्रमबद्धपर्याय: निर्देशिका
(पृष्ठ २० पैरा ४ से पृष्ठ २२ पैरा १ तक)
. ध्रौव्यात्मक है।
विचार बिन्दु :
१. समयसार गाथा ३०८-३११ की टीका एवं कार्तिकेयानुप्रेक्षा की गाथा ३२१-३२३ के आधार पर क्रमबद्ध परिणमन व्यवस्था पहले ही सिद्ध की जा चुकी है। प्रवचनसार गाथा १०२ में प्रत्येक पर्याय के जन्मक्षण और नाशक्षण बात भी कही गई है। प्रवचनसार गाथा ९९ की टीका के माध्यम से द्रव्य के विस्तारक्रम का उदाहरण देकर प्रवाहक्रम को समझाया गया है।
विस्तारक्रम में प्रवर्तमान द्रव्य के सूक्ष्म अंश को प्रदेश कहते हैं तथा प्रवाह क्रम में प्रवर्तमान द्रव्य को परिणाम कहते हैं।
द्रव्य के प्रदेश अथवा परिणाम परस्पर भिन्न होते हैं, इसलिए उनमें क्रम होता है । द्रव्य के सभी प्रदेश एक साथ फैले होते हैं, किन्तु जहाँ एक प्रदेश है वहीं दूसरा प्रदेश नहीं है, तथा जहाँ दूसरा प्रदेश है वहीं पूर्व का या अगला प्रदेश नहीं है। इसलिए प्रदेशों में विस्तारक्रम होता है।
इसीप्रकार द्रव्य के परिणाम प्रवाहक्रम अर्थात् एक के बाद एक अपने क्रम में प्रगट होते हैं। जिस काल में जो परिणाम है, उस काल में दूसरा नहीं है, तथा जिस काल में दूसरा परिणाम है उसमें पूर्व का या अगला परिणाम नहीं है। इसलिए परिणामों में प्रवाहक्रम होता है।
२. प्रत्येक प्रदेश और परिणाम उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यस्वरूप है, इसे त्रिलक्षण परिणाम पद्धति कहते हैं।
प्रत्येक प्रदेश या परिणाम अपने स्वरूप की अपेक्षा उत्पादरूप है पूर्वरूप की अपेक्षा व्ययरूप है तथा परस्पर अनुस्यूति से रचित एक वास्तुपने से प्रवाहक्रम में
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क्रमबद्धपर्याय: एक अनुशीलन
अनुत्पन्न और अविनष्ट होने से ध्रौव्यरूप है।
उपर्युक्त त्रिलक्षण परिणाम पद्धति में प्रवर्तमान द्रव्य, स्वभाव का अतिक्रम नहीं करता, अतः द्रव्य भी त्रिलक्षण अर्थात् उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यरूप है।
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आचार्य ने झूलते हुए मोतियों के हार के उदाहरण से त्रिलक्षण परिणाम पद्धति को समझाया है।
निर्देश :- उक्त टीका और भावार्थ के आधार पर निम्न बातों का विशेषरूप से स्पष्ट करना चाहिए -
(ब) परिणाम (स) विस्तारक्रम
(अ) प्रदेश
(द) परस्पर अनुस्यूति (इ) त्रिलक्षण परिणाम पद्धति
विशेष स्पष्टीकरण :- कपड़े के थान में उसकी चौड़ाई (अर्ज) विस्तार जैसा है, तथा उसकी लम्बाई प्रवाह जैसी है, इसे ताना बाना भी कहते हैं। यहाँ तानाबाना क्रमशः परिणाम और प्रदेश हैं। इस उदाहरण से उक्त सभी बिन्दु स्पष्ट किये जा सकते हैं।
किसी हॉल की लम्बाई-चौड़ाई को विस्तार क्रम का उदाहरण बनाकर उसके विस्तार क्रम को समझाते हुए उसमें उत्पाद-व्यय - ध्रौव्य घटित करना चाहिए। जैसे ५० फुट लम्बे हॉल में उसकी लम्बाई नापते समय १० वां फुट आया अर्थात् १०वें रूप से उत्पन्न हुआ, अतः वह उत्पादरूप है १०वें का उत्पाद ही ९वें का व्यय है, अतः वह ९वें फुट के अभाव अर्थात् व्ययरूप है और सम्पूर्ण अखण्ड हॉल की अपेक्षा वह १० वां फुट अपने स्थान पर सदैव रहता है अर्थात् न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है, अतः वही ध्रौव्यरूप है ।
रेलयात्रा करते समय किसी परिचित स्टेशन में भी ये तीनों घटित किए जा सकते हैं। जैसे बड़ौदा का आना उत्पादरूप है, वह सूरत के जानेरूप होने से व्ययरूप है। बड़ौदा का आना ही सूरत के जानेरूप है, तथा बड़ौदा अपने स्थान पर सदा स्थिर होने से न आनेरूप है न जानेरूप है अतः ध्रौव्यरूप हैं।