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क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका
करें? तत्व-निर्णय और सम्यग्दर्शन आदि की पर्यायें भी हमारे आधीन नहीं हैं, तो हम इनके लिए प्रयत्न क्यों करें? इस स्थिति में तो हम स्वच्छन्द हो जायेंगे?
उत्तर :- भाई! जरा गहराई से सोचो! यदि तुम अपने पाप-भावों को रोक सकते हो तो क्यों नहीं रोक लेते? और सम्यग्दर्शनादि प्रगट क्यों नहीं कर लेते? इससे सिद्ध होता है कि परिणाम हमारी इच्छा के आधीन नहीं है।
जिसे परिणामों की स्वतंत्रता की श्रद्धा होती है उसकी दृष्टि ज्ञायक स्वभाव पर होने से उसे अमर्यादित पापभाव आते ही नहीं हैं और सम्यग्दर्शनादि निर्मल परिणाम होने लगते हैं। अतः परिणामों की स्वतंत्रता स्वीकार करना ही निर्मल पर्याय प्रगट करने का उपाय है।
प्रश्न :- परिणामों की स्वतंत्रता का निर्णय करना हमारी इच्छा के आधीन है या नहीं?
उत्तर :- यह ऐसा विचित्र प्रश्न है कि यदि इसका उत्तर हाँ में दिया जाए, तो उसका अर्थ ना होगा, और यदि ना में दिया जाए, तो उसका अर्थ हाँ होगा।
यदि कोई माँ अपने छोटे बालक को थपकी देकर सुलाए और फिर उससे पूछे पप्पू! सो गए क्या? तो यदि बालक सो गया हो, तो कुछ नहीं बोलेगा, और यदि वह हाँ कहे तो इसका अर्थ यह हुआ कि वह अभी सोया नहीं।
इसीप्रकार यदि हम यह कहें कि हाँ! क्रमबद्धपर्याय का निर्णय करना तो हमारे आधीन है, तो इसका अर्थ यह हुआ अभी हमें परिणामों की स्वतंत्रता
और अकर्तास्वभाव का यथार्थ निर्णय नहीं हुआ है। यदि निर्णय हो गया हो तो इस प्रश्न का उत्तर अनुभूतिस्वरूप मौन ही होगा, वाणी नहीं।
यदि कोई वक्ता सभा में पीछे बैठे श्रोताओं से पूछे कि आवाज आ रही है या नहीं? और वे कहें कि नहीं आ रही हैं, तो इसका अर्थ हुआ कि आवाज आ रही है, अन्यथा वे उत्तर कैसे देते?
क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन
इसीप्रकार यदि हम कहें कि क्रमबद्धपर्याय का निर्णय करना भी हमारी इच्छा के आधीन नहीं है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि हमें उसका निर्णय हो गया है, अन्यथा हम नहीं कहकर पर्यायों की स्वतंत्रता का स्वीकार कैसे करते?
२. इस व्यवस्था में पराधीनता नहीं, अपितु एक-एक समय की पर्याय की स्वतंत्रता सिद्ध होती है।
३. विशेष स्पष्टीकरण :- जगत यह समझता है कि "जैसा हम चाहें वैसा करें" अर्थात् उसकी इच्छानुसार वस्तु का परिणमन हो तो उसे स्वाधीनता नजर आती है; परन्तु वह नहीं सोचता कि इस व्यवस्था में वस्तु का परिणमन इच्छा के आधीन हो गया, अतः वस्तु की स्वाधीनता खण्डित हो गई।
यह पहले भी कहा जा चुका है कि इच्छानुसार कार्य होना वस्तु की स्वतन्त्रता नहीं है, अपितु वस्तु की तत्समय की योग्यतानुसार कार्य होना ही वस्तु की स्वतन्त्रता है। वस्तु का परिणमन व्यवस्थित क्रम में पूर्ण निश्चित होने पर भी स्वतंत्र है। अज्ञानी की इच्छा या सर्वज्ञ के ज्ञान के आधीन नहीं हैं। क्योंकि प्रत्येक वस्तु का परिणमन उसकी तत्समय की योग्यतानुसार होता है। अतः हमारे पुण्यपाप भाव, स्वयं-नरक आदि गतियाँ सब अपनी योग्यतानुसार स्वकाल में स्वयं होते हैं।
इसप्रकार क्रमबद्ध परिणमन की व्यवस्था में वस्तु की स्वतन्त्रता खण्डित नहीं होती अपितु सुरक्षित रहती है।
यदि जिनवाणी को ही न माना जाए तो २४ तीर्थंकर, ५ परमेष्ठी, स्वर्गनरक, मोक्ष आदि भी कुछ भी मानना सम्भव न होगा। प्रश्न :१९. यह जीव अपनी इच्छानुसार शुभभाव करके तीर्थंकर, चक्रवर्ती इन्द्र आदि हो
सकता है या नहीं? कारण सहित स्पष्ट कीजिए? २०. वस्तु का परिणमन स्वतन्त्र है - इस कथन का क्या आशय है?