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क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ है, उससे तदनुकूल पुरुषार्थ होने का मार्ग स्पष्ट हो जाता है। इसीप्रकार उक्त पुरुषार्थ द्वारा जो आत्मा के अरूपी भावों में शुद्धि प्रगट होती है उस शुद्धि की प्रगटता के पाँच समवायों में रूपी मन-वचन-काय के परिवर्तन की निमित्तता अनिवार्य रूप से रहती है; इसलिए इनके परिवर्तन की तारतम्यता के ज्ञान द्वारा आत्मार्थी को अपनी शुद्धि की वृद्धि का ज्ञान होकर पुरुषार्थ उग्र होकर आत्मा को पूर्णता प्राप्त हो जाती है। इसप्रकार मोक्षमार्ग जो अरूपी भावों में प्रगट होता है, उसका समुचित और सत्यार्थ मार्ग प्राप्त होकर, आत्मा पूर्णता को प्राप्त कर लेता है।
उक्त समस्त चर्चा का तात्पर्य यह है कि आत्मा तो ज्ञान का घनपिण्ड त्रिकाल ज्ञायक ध्रुवभाव है और जानना उसकी त्रिकाल वर्तनेवाली क्रिया है, आत्मा उसका कर्ता है और जानना उसका कर्म है। स्व और पर को जानना उसका स्वभाव है। आत्मा में स्व-स्वामित्व संबंधशक्ति होने से स्व अर्थात् ज्ञायक उसका स्वामी है। चारित्र नाम की शक्ति का कार्य लीनता करना है।
इसलिए ज्ञायक में अपनत्व करके उसी में तन्मय रहते हुए स्व एवं पर को जानते रहने का आत्मा का स्वभाव है। इसप्रकार ज्ञानी को स्व का ज्ञान तो तन्मयतापूर्वक होता है और पर का ज्ञान अपनी चारित्रगत शुद्धि के अनुसार अतन्मयतापूर्वक होता है। यह तो आत्मवस्तु का स्वभाव है और यह स्वभाव केवली भगवान की आत्मा में प्रगट वर्तता है; इसलिए ज्ञानी को उक्त स्वभाव की श्रद्धा प्रगट हो जाती है, वह तो मोक्षमार्गी बन जाता है और जिसको उक्त स्वभाव की श्रद्धा नहीं होती, वह संसारमार्गी बना रहता है। अज्ञानी के नहीं मानने पर भी वस्तु का स्वभाव तो है वैसा ही रहेगा। कहा
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ भी है -
"एक होय त्रण कालमां, परमारथनो पंथ' जिसने उक्त वस्तुस्वभाव को जानकर, पहिचानकर उस पर निःशंक श्रद्धा कर सम्यग्दर्शन प्रगट कर लिया है। उसको तो मिथ्यात्व अनन्तानुबंधी का अभाव हो जाने से स्वरूपाचरणचारित्र प्रगट हो गया है तथा उसने तो अतीन्द्रिय अनाकुल आनन्द का आंशिक स्वाद भी चख लिया है। फिर भी स्वरूपस्थिरता की कमी के कारण उसको भी चारित्र मोह संबंधी रागादि होते हैं और तदनुकूल मनवचन-काय की क्रियाएँ भी वर्तती हैं, ज्ञान भी उनमें उलझता है, एकमेक हो जाता है; फिर भी ज्ञायक में अपनत्व एवं स्वरूपाचरण तो अक्षुण्ण वर्तता ही रहता है, उसके बल से उसका ज्ञान जाग्रत रहता है। अपने परिणमन में होनेवाले भाव एवं मन-वचन-काय की क्रियाएँ उसके ज्ञान में प्रगट वर्तती हुई अनुभव में आती हैं। उसको उक्त वस्तुस्वभाव की श्रद्धा एवं ज्ञान जाग्रत रहने से उक्त प्रकार से आत्मा में होनेवाले भाव एवं मन-वचन-काय क्रियाओं के परिणमन, सब पर में होनेवाले परिणमन भासते हैं, चारित्रमोह संबंधी होनेवाले भावों को अर्थात् तद्तद् गुणों के परिणमनों को, पाँच समवाययुक्त क्रमबद्ध वर्तनेवाले परिणमन जानकर, उनका तटस्थ ज्ञाता बना रहता है। उनके अभाव करने आदि के कार्यों में नहीं उलझता । उसको श्रद्धा है कि उक्त परिणमन स्व क्रम में होनेवाले उनके परिणमन हैं, वे भी अपने समय के सत् हैं आदि-आदि प्रकार की श्रद्धा द्वारा न तो उनका स्वामी बनता है और न कर्ता-भोक्ता बनता है, मात्र तटस्थ ज्ञाता रहता है।
ज्ञानी को उक्तप्रकार के विकल्प नहीं करने पड़ते, विचार नहीं