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________________ क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ करना पड़ता; क्योंकि विकल्प और विचार तो चारित्र मोह संबंधी भावकर्म है; इसलिए ज्ञानी को सम्यक् श्रद्धा के साथ जो परिणति उत्पन्न होती है, उसमें समस्त गुणों का आंशिक कार्य भी प्रगट रहता है, उसमें ज्ञान एवं चारित्र का अंश भी साथ वर्तता है लेकिन श्रद्धा तो सिद्ध की और ज्ञानी की समान होती है। इसलिए ज्ञायक में अपनत्व के साथ समस्त गुणों के कार्य सम्यक्त्व रहने तक परिणति में धारावाहिक अक्षुण्ण रूप से वर्तते रहते हैं। ऐसी परिणति का परिणमन, उपयोगात्मक नहीं होते हुए भी वह परिणमन परिणति में व्यक्त रहता है। इस परिणति की व्यक्तता का संबंध ज्ञान के उपयोग से नहीं होकर, अन्य गुणों के साथ वर्तनेवाले ज्ञान के परिणमन से है; इसीलिए ऐसी श्रद्धा धारावाहिक रहती है। उपयोग तो पलटता रहता है; लेकिन परिणति अक्षुण्ण रहती है। जैसे मित्र के भी शत्रु बन जाने पर उसके साथ मित्र के समान व्यवहार करने पर भी अन्तर में श्रद्धा उसके विपरीत वर्तती रहती है, उससे ज्ञानी की श्रद्धा का भी अनुमान लगा लेना । उक्त प्रकार की परिणति वर्तते रहने से ज्ञानी चारित्रमोह से उत्पन्न होनेवाली उक्त क्रियाओं में एकमेक हो गया दिखने पर भी, उनसे अलिप्त रहकर, उनमें स्वामित्व एवं कर्तृत्व-भोक्तृत्व नहीं होने देता । फलतः मिथ्यात्वजन्य रागादि उत्पन्न नहीं हो सकते और मोक्षमार्गी बना रहता है। तात्पर्य यह है कि मोक्षमार्ग का प्रारम्भ अर्थात् मिथ्यात्व अनन्तानुबंधी का अभाव तो ज्ञायक में अपनत्व होने से होता है, उसी से संबंधित समस्त द्रव्यकर्मों एवं भावकर्मों का नाश सहजरूप से स्वयं ही हो जाता है, अन्य किसी में कुछ नहीं करना पड़ता। निष्कर्ष क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ विश्व की प्रत्येक वस्तु अपने-अपने स्वभावों सहित ध्रुवनित्य-अपरिवर्तित रहते हुए भी परिणमती रहती है; यथा “उत्पादव्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्' इसप्रकार चेतनवस्तु अपने चेतनस्वभावों सहित अपने ही द्रव्य में तथा अचेतनवस्तुयें अपने-अपने अचेतनस्वभावों सहित, अपने-अपने द्रव्यों में अबाधरूप से अनादि-अनन्त परिणमती रहती हैं। यह तो प्रत्येक वस्तु का वस्तुगत स्वभाव है, ऐसे परिणमन का कोई कर्ता नहीं है। इसप्रकार जब वस्तु का अस्तित्व अनादि-अनन्त है और काल का समय समयवर्ती प्रवाह भी अनादि-अनन्त है, तो प्रत्येक वस्तु के परिणमन भी प्रवाहरूप से अनादि-अनन्त है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक वस्तु का प्रतिसमय का परिणमन अनन्तकाल का निश्चित स्वकाल से क्रमबद्ध होना सहज ही प्रतिफलित होता है और इससे सिद्ध हो जाता है कि क्रमबद्धपरिणमन होना तो वस्तु का वस्तुभूत स्वभाव है। इतना अवश्य है कि ऐसे परिणमन पाँच समवाययुक्त होते हैं। उन पाँच समवायों में १. स्वभाव = चेतन का कार्य चेतन ही होगा। २. जिस काल में जिस कार्य की सम्पन्न होती है वह उसका स्वकाल, ३. नियति = जो कार्य सम्पन्न होता है, वही कार्य सम्पन्न होने की उस पर्याय की सामर्थ्य-योग्यता ४. पुरुषार्थ = कार्य के अनुकूल वीर्य का उत्थान होना; ये चारों समवाय तो जिस वस्तु में कार्य होता है उसमें होते हैं; किन्तु एक निमित्त नामक समवाय, कार्य के अनुकूल होनेवाला परद्रव्य का परिणमन होता है। इसप्रकार पाँचों की एक ही काल में समग्रता कार्य की संपन्नता का नियामक होता है, यह तो वस्तुस्वरूप है। इसमें मुख्य ध्यान करने योग्य यह है कि क्रमबद्धपरिणमन तो प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है; इसलिए उपादानरूपी वस्तु जिसमें कार्य संपन्न हुआ है उसका एवं निमित्तरूपी
SR No.008356
Book TitleKrambaddha Paryaya ki Shraddha me Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size200 KB
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