________________
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
के भेद का ज्ञान नहीं होता; इसलिए वह तो ज्ञान का उल्लघंन कर भावकर्मों का स्वामी बन जाता है और अपने को उनका कर्ताभोक्ता मानकर आत्मा को रागी-द्वेषी मान कर दुखी होता रहता है।
उक्त भावकर्मों में श्रद्धागुण का विपरीत परिणमन ऐसा मिथ्यात्व जबतक रहता है; तबतक अनन्तानुबंधी के राग-द्वेषादि भाव भी अवश्य रहते हैं और उसका अभाव भी मिथ्यात्व के साथ होता है। दोनों के उत्पाद, उनकी तारतम्यता तथा विनाश एक ही पर्याय में होते हुए भी, ज्ञान उन सबको तटस्थ रूप से जानता रहता है; लेकिन जिसको श्रद्धा ने अपना अर्थात् स्व माना हो, आत्मा के अन्य गुणों के साथ ज्ञान भी उस ओर झुका रहता है फिर भी मिश्र नहीं हो जाता, अलिप्त रहता हुआ जानता है। इसमें महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि आत्मा के प्रदेशों में अनन्तगुणों का कार्य एकसाथ होते हुए भी और ज्ञान उनमें अभिन्न होते हुए भी, जानने के कार्य की अपेक्षा, ज्ञान का कार्य तो उनसे अलिप्त रहते हुए, स्व एवं पर दोनों के कार्यों को जानने का चलता रहता है।
अज्ञानी को उक्त स्वरूप एवं प्रक्रिया का यथार्थ ज्ञान-श्रद्धान नहीं होने से, वह ज्ञान को ही अपराधी मानकर, पर की ओर से ज्ञान को हटाकर ध्रुव की ओर ले जाने की चेष्टा करता रहता है; किन्तु उसका प्रयास निरर्थक रहता है; क्योंकि अपनत्व का कार्य तो श्रद्धा का है ज्ञान का नहीं। श्रद्धा यथार्थ होने पर अर्थात् ध्रुव ऐसे ज्ञायक में अपनत्व होते ही, पर में अपनत्व का सहज ही अभावव्यय हो जाता है। जबतक पर में अपनत्व था तब तक मिथ्यात्व एवं अनन्तानुबंधी दोनों का अस्तित्व भी था और ज्ञायक में अपनत्व होते ही, दोनों प्रकार के भावकर्मों का एकसाथ ही अभाव हो जाता
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ है। कोई अन्य प्रकार का पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता। इसी का वर्णन करणानुयोग में निमित्त की प्रधानता से द्रव्यकर्मों के अभाव के माध्यम से किया जाता है।
ज्ञानी हो जाने के पश्चात् भी अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन संबंधी भावकर्मों का नाश होना शेष रह जाता है, उसका उपाय भी ध्रुव में स्थिरता बढ़ाना ही है, अन्य कोई उपाय नहीं है। स्वरूपस्थिरता के साथ ही पर्याय में शुद्धि की वृद्धि होती है। उसका वर्णन चरणानुयोग की शैली में निमित्त की प्रधानता से मन-वचनकाय की क्रियाओं के परिवर्तन द्वारा, शुद्धि का ज्ञान कराया जाता है।
इसप्रकार स्पष्ट है कि भावकों के नाश करने का उपाय तो एकमात्र ज्ञायक में अपनत्व स्थापन करके, उसी में स्थिरता अर्थात् लीनता करना है, द्रव्यकर्मों और भावकर्मों अथवा नोकर्मों में कुछ भी करना नहीं है। आत्मा में अपनत्व होते ही भावकर्मों के अभाव होने की श्रृखंला प्रारंभ हो जाती है। इसप्रकार के भावकों की उत्पत्ति और अभाव में निमित्तभूत द्रव्यकर्मों की तारतम्यता के कथन से, आत्मा के भावों में होनेवाली शुद्धि-अशुद्धि का ज्ञान हो जाता है; क्योंकि शुद्धि-अशुद्धि के उत्पादनरूपी कार्य में पाँच समवायों में निमित्त की उपस्थिति की भी अनिवार्यता रहती है। इसीप्रकार आत्मा में जितनी शुद्धि प्रगट होती है, उसके पाँच समवायों में मन-वचन-काय के तदनुकूल परिणमन का निमित्तपना अनिवार्यरूप से होता है; इसलिए शुद्धि के साथ परिवर्तन होनेवाली मन-वचन-काय की क्रियाओं की तारतम्यता के ज्ञान द्वारा प्रगट हुई शुद्धि का ज्ञान हो जाता है। इसप्रकार अरूपी आत्मा में वर्तनेवाले भावकर्मों के नाश करने की तारतम्यता का ज्ञान तो द्रव्यकर्मों में होनेवाली तारतम्यता के ज्ञान द्वारा हो जाता