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जोगसारु ( योगसार )
( दूहा - ९ )
णिम्मलु णिक्कलु सुद्ध जिणु, विण्हु बुद्ध सिवु संतु । सो परमप्पा जिण- भणिउ, एहउ जाणि णिभंतु ।। ( हरिगीत )
जो शुद्ध शिव जिन बुद्ध विष्णु निकल निर्मल शान्त है । बस है वही परमातमा जिनवर कथन निर्भ्रान्त है ।। जो निर्मल है, निष्कल है, शुद्ध है, जिन है, विष्णु है, बुद्ध है, शिव है और शान्त है उसे जिनेन्द्रदेव ने परमात्मा कहा है - ऐसा निःसन्देह जानो ।
( दूहा - १० )
देहादिउ जे पर कहिय, ते अप्पाणु मुणेइ । सो बहिरप्पा जिण - भणिउ, पुणु संसारु भमेइ || ( हरिगीत )
जिनवर कहे देहादि पर जो उन्हें ही निज मानता।
संसार - सागर में भ्रमे वह आतमा बहिरातमा ।। जो जीव, देह आदि पदार्थों को, जो कि पर कहे गये हैं, आत्मा समझता है, उसे जिनेन्द्र देव ने बहिरात्मा कहा है। वह संसार में पुनः पुनः परिभ्रमण करता रहता है।
( दूहा - ११ ) देहादिउ जे पर कहिय, ते अप्पाणु ण होहि । इउ जाणेविणु जीव तुहुँ, अप्पा अप्प मुणेहि ।।
( हरिगीत )
देहादि पर जिनवर कहें ना हो सकें वे आतमा । यह जानकर तू मान ले निज आतमा को आतमा ।।
हे जीव ! ये जो देह आदि पदार्थ हैं वे पर कहे गये हैं; वे आत्मा
नहीं हो सकते । - यह जानकर तू आत्मा को ही आत्मा मान ।
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जोगसारु ( योगसार )
( दूहा - १२ )
अप्पा अप्पर जड़ मुणहि, तो णिव्वाणु लहेहि । पर अप्पा जड़ मुणहि तुहुँ, तो संसारु भमेहि ।। ( हरिगीत )
१३
तू पायगा निर्वाण माने आतमा को आतमा । पर भवभ्रमण हो यदी जाने देह को ही आतमा ।। हे जीव ! यदि तू आत्मा को ही आत्मा समझेगा तो निर्वाण
प्राप्त करेगा और यदि पर को आत्मा मानेगा तो संसार में परिभ्रमण करेगा।
( दूहा - १३ )
तो
इच्छा - रहियउ तव करहि, अप्पा अप्पु मुणेहि । लहु पावहि परम-गई, फुडु संसारु ण एहि ।। ( हरिगीत )
आतमा को जानकर इच्छारहित यदि तप करे । तो परमगति को प्राप्त हो संसार में घूमे नहीं ।।
हे भाई ! यदि तू इच्छा-रहित होकर तप करे और आत्मा को ही आत्मा समझे, तो शीघ्र ही परमगति को प्राप्त कर ले और निश्चित रूप से पुनः संसार में न आवे ।
( दूहा - १४ ) परिणामे बंधु जि कहिउ, मोक्ख वि तह जि वियाणि । इउ जाणेविणु जीव तुहुँ, तहभाव हु परियाणि ।। ( हरिगीत )
परिणाम से ही बंध है अर मोक्ष भी परिणाम से ।
यह जानकर हे भव्यजन ! परिणाम को पहिचानिये ।।
हे जीव ! परिणाम से ही बंध कहा है और परिणाम से ही मोक्ष
कहा है, अतः तू इस बात को अच्छी तरह जानकर अपने भावों को पहिचान |