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जोगसारु ( योगसार )
( दूहा - ३ )
संसारहँ भयभीयहँ, मोक्खहँ लालसियाहँ । अप्पा - संबोहण - कयइ, दोहा एक्कमणाहँ ।। ( हरिगीत )
है मोक्ष की अभिलाष अर भयभीत हैं संसार से । है समर्पित यह देशना उन भव्य जीवों के लिए।। जो जीव संसार से भयभीत हैं और मोक्ष के लिए लालायित हैं, उनके लिए और अपने आप को भी संबोधित करने के लिए मैंने एकाग्रचित से इन दोहों की रचना की है। ( दूहा - ४ )
कालु अणाइ अाइ जिउ, भव-सायरु जि अणंतु । मिच्छा-दंसण-मोहियउ, णवि सुह दुक्ख जि पत्तु ।। ( हरिगीत )
अनन्त है संसार - सागर जीव काल अनादि हैं। पर सुख नहीं, बस दुःख पाया मोह-मोहित जीव ने ।। काल अनादि-अनन्त है, जीव अनादि-अनन्त है और यह संसारसागर भी अनादि - अनन्त है। यहाँ मिथ्यादर्शन से मोहित जीव ने कभी भी सुख नहीं प्राप्त किया, अपितु दुःख ही प्राप्त किया।
( दूहा - ५ )
जड़ बीहउ चउ - गइ-गमण, तो पर-भाव चएहि । अप्पा झायहि णिम्मलउ, जिम सिव-सुक्ख लहेहि ।। ( हरिगीत )
भयभीत है यदि चर्तुगति से त्याग दे परभाव को ।
परमातमा का ध्यान कर तो परमसुख को प्राप्त हो ।।
हे जीव ! यदि तू चतुर्गति के भ्रमण से भयभीत है, तो परभाव का त्याग कर और निर्मल आत्मा का ध्यान कर, ताकि तू मोक्ष-सुख को प्राप्त कर सके ।
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जोगसारु ( योगसार )
( दूहा - ६ )
ति पयारो अप्पा मुणहि, परु अंतरु बहिरप्पु । पर झायहि अंतर-सहिउ, बाहिरु चयहि णिभंतु ।। ( हरिगीत ) बहिरातमापन त्याग जो बन जाय अन्तर आतमा ।
ध्यावे सदा परमातमा बन जाय वह परमातमा ।। आत्मा तीन प्रकार का है- परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा । इनमें से अन्तरात्मा होकर परमात्मा का ध्यान करो और भ्रान्ति-रहित होकर बहिरात्मा का त्याग कर दो।
( दूहा - ७ ) मिच्छा - दंसण- मोहियउ, परु अप्पा ण मुणेड़ । सो बहिरप्पा जिण भणिउ, पुण संसार भमेइ ।।
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( हरिगीत )
मिथ्यात्वमोहित जीव जो वह स्व-पर को नहिं जानता । संसार-सागर में भ्रमे दृगमूढ़ वह बहिरातमा ।। जो जीव मिथ्यादर्शन से मोहित है और परमात्मा (अथवा स्व और
पर) को नहीं पहिचानता है, उसे जिनेन्द्र देव ने बहिरात्मा कहा है। वह पुनः पुनः संसार में परिभ्रमण करता है।
( दूहा - ८ )
जो परियाणइ अप्पु परु, जो परभाव चएइ । सो पंडिउ अप्पा मुणहु, सो संसारु मुएइ ।।
( हरिगीत )
जो त्यागता परभाव को अर स्व-पर को पहिचानता । है वही पण्डित आत्मज्ञानी स्व-पर को जो जानता ।।
जो जीव परमात्मा (अथवा स्व और पर) को पहिचानता है और परभावों का त्याग कर देता है, उसे पंडित-आत्मा (अन्तरात्मा) समझो। वह संसार को छोड़ देता है।