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________________ जोगसारु (योगसार) जोगसारु (योगसार) (दूहा-५१) जेहउ जजरु णरय-घरु, तेहउ बुज्झि सरीरु । अप्पा भावहि णिम्मलउ, लहु पावहि भवतीरु ।। (हरिगीत) 'जरजरित है नरक सम यह देह' - ऐसा जानकर । यदि करो आतम भावना तो शीघ्र ही भव पार हो।। हे योगी ! तू इस शरीर को नरकगृह के समान जर्जर (पुराना, व्यर्थ, बुरा) समझ, और एक निर्मल आत्मा की ही भावना कर, ताकि तुझे शीघ्र निर्वाण प्राप्त हो। (दूहा-५२) धंधइ पडियउ सयल जगि, णवि अप्पा हु मुणंति । तहिँ कारणि ए जीव फुडु, ण हु णिव्वाणु लहंति ।। (हरिगीत) धंधे पड़ा सारा जगत निज आतमा जाने नहीं। बस इसलिए ही जीव यह निर्वाण को पाता नहीं।। अहो, संसार में सब लोग अपने-अपने धंधे में फंसे हुए हैं और आत्मा को नहीं पहिचानते हैं। यही कारण है कि वे निर्वाण को नहीं प्राप्त करते - यह स्पष्ट है। (दूहा-५३) सत्थ पढंतहँ ते वि जड, अप्पा जे ण मुणंति । तहिँ कारणि ए जीव फुडु, ण हु णिव्वाणु लहंति ।। (हरिगीत) शास्त्र पढ़ता जीव जड़ पर आतमा जाने नहीं। बस इसलिए ही जीव यह निर्वाण को पाता नहीं।। जो जीव शास्त्रों को पढ़ते हुए भी आत्मा को नहीं जानते, वे भी जड़ ही हैं और इसीकारण से वे भी निर्वाण को नहीं प्राप्त करते हैं - यह स्पष्ट है। (दूहा-५४) मणु-इंदिहि वि छोडियइ, बुह पुच्छियइ ण कोइ। रायहँ पसरु णिवारियइ, सहज उपज्जइ सोइ ।। (हरिगीत ) परतंत्रता मन-इन्द्रियों की जाय फिर क्या पूछना। रुक जाय राग-द्वेष तो हो उदित आतम भावना ।। यदि कोई ज्ञानी जीव मन और इन्द्रियों से छुटकारा प्राप्त कर ले, तो उसे किसी से कुछ पूछने की आवश्यकता नहीं है। वह राग के प्रसार को रोक देता है और उसे सहज ही आत्मभाव प्रकट हो जाता है। (दूहा-५५) पुग्गलु अण्णु जि अण्णु जिउ, अण्णु वि सहु ववहारु। चयहि वि पुग्गलु गहहि जिउ, लहु पावहि भवपारु।। (हरिगीत) जीव पुद्गल भिन्न हैं अर भिन्न सब व्यवहार है। यदि तजे पुद्गल गहे आतम सहज ही भवपार है।। पुद्गल अलग है और जीव अलग है। अन्य सब व्यवहार भी जीव से अलग है। हे जीव ! पुद्गल को छोड़ो और जीव को ग्रहण करो, ताकि तुम शीघ्र ही संसार से पार होओ। (दूहा-५६) जे णवि मण्णहिँ जीव फुड, जे णवि जीउ मुणंति । ते जिण-णाहहँ उत्तिया, णउ संसार मुचंति ।। (हरिगीत ) ना जानते-पहिचानते निज आतमा गहराई से । जिनवर कहें संसार-सागर पार वे होते नहीं ।। जो लोग जीव को नहीं जानते हैं और उसकी श्रद्धा नहीं करते हैं, वे कभी भी संसार से मुक्त नहीं होते - ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है।
SR No.008355
Book TitleJogsaru Yogsar
Original Sutra AuthorYogindudev
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size129 KB
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