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जोगसारु ( योगसार )
( दूहा - ४५ )
तित्थइ देउलि देउ जिणु, सव्वु वि कोइ भइ । देहा- देउलि जो मुणइ, सो बुहु को वि हवे ।।
( हरिगीत )
सारा जगत यह कहे श्री जिनदेव देवल में रहें । पर विरल ज्ञानी जन कहें कि देह देवल में रहें ।। देव तीर्थों और मन्दिरों में है ऐसा सब कहते हैं, परन्तु ऐसा ज्ञानी कोई विरला ही होता है जो मानता है कि देव तो इस देहरूपी देवालय में ही है।
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( दूहा - ४६ )
जड़ जर मरण - करालियउ, तो जिय धम्म करेहि । धम्म- रसायणु पियहि तुहुँ, जिम अजरामर होहि ।। ( हरिगीत )
यदि जरा भी भय है तुझे इस जरा एवं मरण से । तो धर्मरस का पान कर हो जाय अजरा-अमर तू ।। हे जीव ! यदि तू जरा-मरण से भयभीत है तो धर्म कर, रसायन का पान कर; ताकि तू अजर-अमर हो सके । ( सोरठा - ४७ )
धम्मु ण पढ़ियइँ होइ, धम्मु ण पोत्था - पिच्छियइँ । धम्मदिय-पसि, धम्मु ण मत्था - लुंचियइँ ।। ( हरिगीत )
पोथी पढ़े से धर्म ना ना धर्म मठ के वास से । ना धर्म मस्तक लुंच से ना धर्म पीछी ग्रहण से ।।
पढ़ने से धर्म नहीं होता, पुस्तक व पिच्छी से भी धर्म नहीं होता,
मठ में रहने से भी धर्म नहीं होता, और केशलोंच करने से भी धर्म नहीं होता ।
धर्म
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जोगसारु ( योगसार )
( दूहा - ४८ )
राय - रोस बे परिहरिवि, जो अप्पाणि वसेड़ । सो धम्मु विजिण - उत्तियउ, जो पंचम - गइ ई ।।४८ ॥
( हरिगीत )
परिहार कर रुष - राग आतम में बसे जो आतमा । बस पायगा पंचम गति वह आतमा धर्मातमा ।। जो जीव राग और द्वेष- इन दोनों को छोड़कर आत्मा में वास करता है, उसे ही जिनेन्द्र देव ने धर्म कहा है। वह धर्म जीव को पंचम गति (मोक्ष) में ले जाता है ।
( दूहा - ४९ )
आउ गलइ णवि मणु गलइ, णवि आसा हु गलेइ। मोहु फुरइ ण वि अप्पहिउ, इम संसार भमेड़ ।। ( हरिगीत )
आयू गले मन ना गले ना गले आशा जीव की । मोह स्फुरे हित ना स्फुरे यह दुर्गति इस जीव की ।। अहो ! आयु गल रही है, पर मन नहीं गल रहा है, न ही आशा गल रही है। मोह तो स्फुरित हो रहा है, परन्तु आत्महित का स्फुरण नहीं हो रहा है। यही कारण है कि यह जीव संसार में भ्रमण कर रहा है।
( दूहा -५० )
जेह मणु विसयहँ रमइ, तिमु जइ अप्प मुणेइ । जोइउ भणइ हो जोइयहु, लहु णिव्वाणु लहेइ || ( हरिगीत )
ज्यों मन रमे विषयानि में यदि आतमा में त्यों रमे । योगी कहें हे योगिजन ! तो शीघ्र जावे मोक्ष में ।।
हे योगियो ! यदि यह मन जिस तरह विषयों में रमण करता है, उस
तरह आत्मा को जानने में लगे - आत्मा में रमण करे तो शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त करे - ऐसा योगी कहते हैं।
१. पाठान्तर देइ ।