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इक सौं बारह कोड़ि बखानो, लाख तिरासी ऊपर जानो। ठावन सहस पंच अधिकाने, द्वादश अंग सर्व पद माने ।। कोड़ि इकावन आठ हि लाखं, सहस चुरासी छह सौ भाखं।
साढ़े इकवीस श्लोक बताये, एक-एक पद के ये गाये ।। ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भूतसरस्वतीदेव्यै अनर्घ्यपदप्राप्तयेजयमालापूर्णाय निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा) जा वाणी के ज्ञान तें, सूझै लोक-अलोक । 'द्यानत' जग जयवन्त हो, सदा देत हों धोक ।।
(पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्)
परमेष्ठी वन्दना पंच परम परमेष्ठी देखे--- हृदय हर्षित होता है, आनन्द उल्लसित होता है। हो ऽ ऽ ऽ सम्यग्दर्शन होता है ।।टेक ।। दर्श-ज्ञान-सुख-वीर्य स्वरूपी गुण अनन्त के धारी हैं। जग को मुक्तिमार्ग बताते, निज चैतन्य विहारी हैं ।। मोक्षमार्ग के नेता देखे, विश्व तत्त्व के ज्ञाता देखे। हृदय हर्षित होता है--------------------- ||१|| द्रव्य-भाव-नोकर्म रहित, जो सिद्धालय के वासी हैं। आतम को प्रतिबिम्बित करते, अजर अमर अविनाशी हैं।। शाश्वत सुख के भोगी देखे, योगरहित निजयोगी देखे। हृदय हर्षित होता है--------- ----------||२|| साधु संघ के अनुशासक जो, धर्मतीर्थ के नायक हैं। निज-पर के हितकारी गुरुवर, देव-धर्म परिचायक हैं।। गुण छत्तीस सुपालक देखे, मुक्तिमार्ग संचालक देखे । हृदय हर्षित होता है
--------||३|| जिनवाणी को हृदयंगम कर, शुद्धातम रस पीते हैं। द्वादशांग के धारक मुनिवर, ज्ञानानन्द में जीते हैं।। द्रव्य-भाव श्रुत धारी देखे, बीस-पाँच गुणधारी देखे। हृदय हर्षित होता है------------ ---------|४|| निजस्वभाव साधनरत साधु, परम दिगम्बर वनवासी। सहज शुद्ध चैतन्यराजमय, निजपरिणति के अभिलाषी।। चलते-फिरते सिद्धप्रभु देखे, बीस-आठ गुणमय विभु देखे। हृदयहर्षित होता है-------- -------- ||५॥
1000 जिनेन्द्र अर्चना
अक्षय-तृतीया पर्व पूजन (श्री राजमलजी पवैया कृत)
(ताटक) अक्षय-तृतीया पर्व दान का, ऋषभदेव ने दान लिया। नृप श्रेयांस दान-दाता थे, जगती ने यशगान किया ।। अहो दान की महिमा, तीर्थंकर भी लेते हाथ पसार। होते पंचाश्चर्य पुण्य का, भरता है अपूर्व भण्डार ।। मोक्षमार्ग के महाव्रती को, भावसहित जो देते दान । निजस्वरूप जप वह पाते हैं, निश्चित शाश्वत पदनिर्वाण ।। दान तीर्थ के कर्ता नृप श्रेयांस हुए प्रभु के गणधर । मोक्ष प्राप्त कर सिद्ध लोक में, पाया शिवपद अविनश्वर ।। प्रथम जिनेश्वर आदिनाथ प्रभु! तुम्हें नमन हो बारम्बार । गिरि कैलाश शिखर से तुमने, लिया सिद्धपद मंगलकार ।। नाथ आपके चरणाम्बुज में, श्रद्धा सहित प्रणाम करूँ। त्यागधर्म की महिमा पाऊँ, मैं सिद्धों का धाम वरूँ। शुभ वैशाख शुक्ल तृतिया का, दिवस पवित्र महान हुआ।
दान धर्म की जय-जय गूंजी, अक्षय पर्व प्रधान हुआ।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्र! अब मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
(वीरछन्द) कर्मोदय से प्रेरित होकर, विषयों का व्यापार किया। उपादेय को भूल हेय तत्त्वों, से मैंने प्यार किया। जन्म-मरण दुख नाश हेतु मैं, आदिनाथ प्रभु को ध्याऊँ।
अक्षय-तृतीया पर्व दान का, नृप श्रेयांस सुयश गाऊँ ।।टेक।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। जिनेन्द्र अर्चना
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