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________________ मन-वच-काया की चंचलता, कर्म आस्रव करती है। चार कषायों की छलना ही, भवसागर दुःख भरती है।। भवाताप के नाश हेतु मैं, आदिनाथ प्रभु को ध्याऊँ। अक्षय-ततिया पर्व दान का. नप श्रेयांस सयश गाऊँ।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा। इन्द्रिय विषयों के सुख क्षणभंगुर, विद्युत-सम चमक अथिर । पुण्य-क्षीण होते ही आते, महा असाता के दिन फिर ।। पद अखण्ड की प्राप्ति हेतु मैं, आदिनाथ प्रभु को ध्याऊँ।।टेक।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। शील विनय व्रत तप धारण, करके भी यदि परमार्थ नहीं। बाह्य क्रियाओं में उलझे तो, वह सच्चा पुरुषार्थ नहीं।। कामबाण के नाश हेतु मैं, आदिनाथ प्रभु को ध्याऊँ।।टेक।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा। विषय लोलुपी भोगों की, ज्वाला में जल-जल दुख पाता। मृग-तृष्णा के पीछे पागल, नर्क-निगोदादिक जाता ।। क्षुधा व्याधि के नाश हेतु मैं, आदिनाथ प्रभु को ध्याऊँ।।टेक।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। ज्ञानस्वरूप आत्मा का, जिसको श्रद्धान नहीं होता। भव-वन में ही भटका करता, है निर्वाण नहीं होता ।। मोह-तिमिर के नाश हेत मैं. आदिनाथ प्रभु को ध्याऊँ। टेक।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। कर्म फलों का वेदन करके, सुखी दुखी जो होता है। अष्ट प्रकार कर्म का बन्धन, सदा उसी को होता है।। कर्म शत्रु के नाश हेतु मैं, आदिनाथ प्रभु को ध्याऊँ।।टेक ।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। जो बन्धन से विरक्त होकर, बन्धन का अभाव करता। प्रज्ञाछैनी ले बन्धन को, पृथक् शीघ्र निज से करता ।। महामोक्ष-फल प्राप्ति हेतु, मैं आदिनाथ प्रभु को ध्याऊँ। अक्षय-तृतिया पर्व दान का, नृप श्रेयांस सुयश गाऊँ।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । पर मेरा क्या कर सकता है, मैं पर का क्या कर सकता। यह निश्चय करनेवाला ही, भव-अटवी के दुख हरता ।। पद अनर्घ्य की प्राप्ति हेतु मैं, आदिनाथ प्रभु को ध्याऊँ।।टेक।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (दोहा) चार दान दो जगत में, जो चाहो कल्याण । औषधि भोजन अभय अरु, सद् शास्त्रों का ज्ञान ।। (ताटक) पुण्य पर्व अक्षय तृतीया का, हमें दे रहा है यह ज्ञान । दान धर्म की महिमा अनुपम, श्रेष्ठ दान दे बनो महान ।। दान धर्म की गौरव गाथा, का प्रतीक है यह त्यौहार । दान धर्म का शुभ प्रेरक है, सदा दान की जय-जयकार ।। आदिनाथ ने अर्ध वर्ष तक, किये तपस्या-मय उपवास । मिली न विधि फिर अन्तराय, होते-होते बीते छह मास ।। मुनि आहारदान देने की, विधि थी नहीं किसी को ज्ञात । मौन साधना में तन्मय हो, प्रभु विहार करते प्रख्यात ।। नगर हस्तिनापुर के अधिपति, सोम और श्रेयांस सुभ्रात । ऋषभदेव के दर्शन कर, कृतकृत्य हुए पुलकित अभिजात ।। श्रेयांस को पूर्वजन्म का, स्मरण हुआ तत्क्षण विधिकार । विधिपूर्वक पड़गाहा प्रभु को, दिया इक्षुरस का आहार ।। १९६000000 जिनेन्द्र अर्चना जिनेन्द्र अर्चना 10000 99
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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