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यह धूप सुगंधित क्षेप, आतम रम जाऊँ । हो अष्ट करम का क्षार, पंचम गति पाऊँ ।। तुम हो प्रभु वीर महान, सबके हितकारी।
तुम दिया तत्त्व उपदेश, यह जग उपकारी ।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
ये इष्ट मिष्ट फल थाल, भरकर मैं लाऊँ।
अर्पित है दीन दयाल, मुक्ति पद पाऊँ ।।तुम. ।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सब आठों द्रव्य बनाय, मैं प्रभु लावत हूँ।
त्रैलोक्य शिखामणि राय, चरण चढ़ावत हूँ।।तुम. ।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक अर्घ्य षष्ठी शुक्ल अषाढ़ सुशोभै, माता त्रिशला प्रमुदित होवै ।
वीर प्रभुजी गरभ विराजे, कुण्डपुर वासी हरषाये ।। ॐ ह्रीं आषाढशुक्लषष्ट्यां गर्भमंगलमण्डिताय श्री महावीरजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र सुदी तेरस दिन जाये, घर-घर मंगलाचार गुंजाये ।
इन्द्र नरेन्द्र सभी मिल गावें, ढोलक ताल मृदंग बजावें ।। ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लत्रयोदश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्री महावीरजिनेन्द्रायअयं निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर कृष्ण दशम तप धारा, राजपाट से किया किनारा ।
दुद्धर तप हित हेतु विराजे, नाशा दृष्टि मगन जिनराजे ।। ॐ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णदशम्यां तपोमंगलमंडिताय श्री महावीरजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
सित दशमी वैशाख जु आए, केवलज्ञान वीर प्रभु पाये।
तीन लोक में खुशियाँ छाईं, महाश्रमण अरिहन्त कहाये ।। ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लदशम्यां ज्ञानमंगलमंडिताय श्री महावीरजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक कृष्ण अमावस आई, वर्द्धमान प्रभु मुक्ति पाई।
नश्वर देह विलीन हुई प्रभु सब मिल जगमग ज्योति जलाई।। ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णामावस्यायां मोक्षमंगलमंडिताय श्री महावीरजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा। १७८001000000000
1000 जिनेन्द्र अर्चना
जयमाला
(दोहा) मैं गाऊँ जयमालिका, सुनलो ध्यान लगाय । जग के सब संकट मिटें, भवसागर तिर जाय ।।
(पद्धरि छन्द) जय महावीर जिनवर महान, जय धीर वीर निर्भीक मान । जय ज्ञान अनन्तानन्त जान, जय सन्मति दायक वर्द्धमान ।।१।। तुम सिद्धारथ नृप के कुमार, तुमको सब वन्दत बार-बार । तुम त्रिशला नन्दन गुण अनन्त, जग तुम्हें मानता दुख हरन्त ।।२।। हे नाथ! वैशाली गणनायक, हो विदेह कुण्डपुर प्रतिपालक। यह जग नश्वर है लिया जान, तज राज-पाट फिर किया ध्यान ।।३।। सन्मति कैवल्य प्रभावक हो, दुःख भंजक सुख के दायक हो। पतितों के नाथ सहायक हो, तुम प्रभुवर गुण के गाहक हो ।।४।। जिनवर ध्वनि गूंजे दिग् दिगन्त, चहुँओर निशा का हुआ अन्त। सदज्ञान मिला बढ़ गई आस, ढिंग बैठ करें श्रुत का अभ्यास ।।५।। मृग-सिंह सबको ही हुआ बोध, सम्मुख बैठे तज दिया क्रोध । अब नहीं किसी में बैर-भाव, अतिशयकारी सन्मति प्रभाव ।।६।। गौतम को गणधर लिया मान, हो गया जिन्हें कैवल्यज्ञान। पावापुर का जगमग उद्यान, प्रभु महावीर पाया निर्वाण ।।७।। सब नृप करते श्रद्धा अपार, अविरल गिरती थी अश्रुधार । रज माथ लगाते बार-बार, अब नहीं जगत में कहीं सार ।।८।। यह 'अखिल' जगत शरणागत है, निर्ग्रन्थ छवि को निहारत है। सबको मुक्ति की चाहत है, प्रभु जाप जपै सुख पावत है।।९।।
(धत्ताछन्द) महावीर जिनन्दं, आनन्द कन्दं, दुःखनिकन्दं सुखकारी। प्रभु गुण गाऊँ, भाव जगाऊँ, कीर्ति बढ़ाऊँ मनहारी ।।
(दोहा) महावीर के दर्शन कर, हो गया धन्य मैं आज । 'अखिल' जगत सब सुखी हों, वर्द्धमान जिनराज ।।
(पुष्पांजलिं क्षिपेत्) जिनेन्द्र अर्चना 10000
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