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________________ श्री पंच बालयति जिन-पूजन (पं. अभयकुमारजी कृत) (स्थापना) (हरिगीतिका) निज ब्रह्म में नित लीन परिणति से सुशोभित हे प्रभो। पूजित परम निज पारिणामिक से विभूषित हे विभो ।। आओ तिष्ठो अत्र तुम सन्निकट हो मुझमय अहो । बालयति पाँचों प्रभु को वन्दना शत बार हो । ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लि-नेमि-पार्श्व-वीराः पंचबालयतिजिनेन्द्राः! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् । अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः। अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट्। (वीरछन्द) हे प्रभु ! ध्रुव की ध्रुव परिणति के पावन जल में कर स्नान। शुद्ध अतीन्द्रिय आनन्द का तुम करो निरतर अमृत-पान ।। क्षणवर्ती पर्यायों का तो जन्म-मरण है नित्य स्वभाव। पंच बालयति-चरणों में हो तन-संयोग-वियोग अभाव ।। ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यो जन्म-जरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। अहो ! सुगन्धित चेतन अपनी परिणति में नित महक रहा। क्षणवर्ती चैतन्य विवर्तन की ग्रन्थि में चहक रहा ।। द्रव्य, और गुण पर्यायों में सदा महकती चेतन गन्ध । पंच बालयति के चरणों में नाथू राग-द्वेष दुर्गन्ध ।। ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा। परिणामों के ध्रुव प्रवाह में बहे अखण्डित ज्ञायक भाव । द्रव्य-क्षेत्र अरु काल-भाव में नित्य अभेद अखण्डस्वभाव।। निज गुण-पर्यायों में जिनका अक्षय पद अविचल अभिराम । पंच बालयति जिनवर मेरी परिणति में नित करो विराम ।। ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नर्वपामीति स्वाहा। गुण अनन्त के सुमनों से हो शोभित तुम ज्ञायक उद्यान । त्रैकालिक ध्रुव परिणति में तुम प्रतिपल करते नित्य विराम ।। जिनेन्द्र अर्चना इसके आश्रय से प्रभु तुमने नष्ट किया है काम-कलंक। पंच बालयति के चरणों में धुला आज परिणति का पंक।। ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यः कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। हे प्रभु ! अपने ध्रुव प्रवाह में रहो निरन्तर शाश्वत तृप्त । षट्स की क्या चाह तुम्हें तुम निज रस के अनुभव में मस्त। तृप्त हुई अब मेरी परिणति ज्ञायक में करती विश्राम । पंच बालयति के चरणों में क्षुधा-रोग का रहा न नाम ।। ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। सहज ज्ञानमय ज्योति प्रज्वलित रहती ज्ञायक के आधार । प्रभो ! ज्ञान-दर्पण में त्रिभुवन पल-पल होता ज्ञेयाकार ।। अहो ! निरखती मम श्रुत-परिणति अपने में तव केवलज्ञान। पंच बालयति के प्रसाद से प्रकट हुआ निज ज्ञायक भान।। ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा । कालिक परिणति में व्यापी ज्ञान-सूर्य की निर्मल धूप । जिससेसकल-कर्म-मल क्षय कर हुए प्रभो! तुमत्रिभुवनभूप।। मैं ध्याता तुम ध्येय हमारे मैं हूँ तुममय एकाकार । पंच बालयति जिनवर ! मेरे शीघ्र नशो अब त्रिविध विकार।। ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यो अष्टकर्मविनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। सहज ज्ञान का ध्रुव प्रवाह फल सदा भोगता चेतनराज। अपनी चित् परिणति में रमता पुण्य-पाप फल का क्या काज ।। महा मोक्षफल की न कामना शेष रहे अब हे जिनराज । पंच बालयति के चरणों में जीवन सफल हआ है आज।। ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। पंचम परमभाव की पूजित परिणति में जो करें विराम । कारण परमपारिणामिक का अवलम्बन लेते अभिराम ।। वासुपूज्य अरु मल्लि-नेमिप्रभु-पार्श्वनाथ-सन्मति गुणखान । अर्घ्य समर्पित पंच बालयति को पञ्चम गति लहूँ महान ।। ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा। जिनेन्द्र अर्चना MIL१८१ 91
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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