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जो तुमको नहिं जाने जिनेश, वे पायें भव-भव-भ्रमण क्लेश। वे माँगें तुमसे धन-समाज, वैभव पुत्रादिक राज-काज ।। जिनको तुम त्यागे तुच्छ जान, वे उन्हें मानते हैं महान । उनमें ही निशदिन रहें लीन, वे पुण्य-पाप में ही प्रवीन ।। प्रभु पुण्य-पाप से पार आप, बिन पहिचाने पायें संताप । संतापहरण सुखकरण सार, शुद्धात्मस्वरूपी समयसार ।। तुम समयसार हम समयसार, सम्पूर्ण आत्मा समयसार । जो पहचानें अपना स्वरूप, वे हो जायें परमात्मरूप ।। उनको ना कोई रहे चाह, वे अपना लेवें मोक्ष राह ।
वे करें आत्मा को प्रसिद्ध, वे अल्पकाल में होंय सिद्ध ।। ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा) भूतकाल प्रभु आपका, वह मेरा वर्तमान । वर्तमान जो आपका, वह भविष्य मम जान ।।
(पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्)
श्री महावीर पूजन (अखिल बंसल कृत)
(दोहा) महावीर वन्दन करूँ, मैं पूजों धरि ध्यान । निरख आपकी छवि को, होता हर्ष महान ।। गुण अनन्त की खान प्रभु, तुम हो समता वान ।
जो आवे तुम शरण में, करे आत्म कल्याण ।। ॐ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौष्ट । ॐ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
(अष्टक) मैं हुआ अपावन नाथ, तातें ढिंग आयो । हो जाऊँ पावन आज, निर्मल जल लायो ।। तुम हो प्रभु वीर महान, सबके हितकारी।
तुम दिया तत्त्व उपदेश, यह जग उपकारी ।। ॐ ह्रीं श्रीमहीवीरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। ईर्ष्यानल के अंगार, धक-धक धधक रहे।
चन्दन शीतलता लाय, भव आताप हरे ।।तुम. ।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
यह अमल अखण्डित रूप, मुद्रा मोहित है।
अक्षत अर्पित है भूप, शुभ्र सुशोभित है ।।तुम. ।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीर जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
मंगल अरुणोदय आज, पुष्प सुगंधित हैं।
सब छोडूं काम विकार, सुमन समर्पित हैं ।।तुम. ।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीर जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुविध नैवेद्य बनाय, तृप्ति विहीन रहा।
यह क्षुधा रोग विनसाय, जब प्रभु ध्यान धरा ।।तुम. ।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यह दीप संजोकर लाय, नाशै अंधियारा।
मम मोह तिमिर छट जाय, अन्तस उजियारा ।।तुम. ।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। जिनेन्द्र अर्चना 10000
भजन
जिन-प्रतिमा जिनवर-सी कहिए। भविक तुम वन्दहु मनधर भाव, जिन-प्रतिमा जिनवर-सी कहिए। जाके दरस परम पद प्रापति, अरु अनंत शिव-सुख लहिए ।।जिन. ।। निज-स्वभाव निरमल है निरखत, करम सकल अरि घट दहिये। सिद्ध-समान प्रकट इह थानक, निरख-निरख छवि उर गहिए ।।जिन. ।। अष्ट कर्म-दल भंज प्रकट भई, चिन्मूरति मनु बन रहिये। जाके दरस परम पद प्रापति, अरु अनंत शिव-सुख लहिए ।।जिन. ।। त्रिभुवन माहिं अकृत्रिम-कृत्रिम, वंदन नित-प्रति निरवहिये। महा-पुण्य संयोग मिलत है, 'भैया' जिन प्रतिमा सरदहिये ।।जिन. ।।
१७६MIA
जिनेन्द्र अर्चना
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