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रजोमल-खेद-विमुक्त विगात्र, निरन्तर नित्य सुखामृत-पात्र । सुदर्शन-राजित नाथ विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध-समूह ।।६।। नरामर-वन्दित निर्मल-भाव, अनन्त मुनीश्वर-पूज्य-विहाव। सदोदय विश्व महेश विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध-समूह ।।७।। विदम्भ वितृष्ण विदोष विनिद्र परात्पर शङ्कर सार वितन्द्र। विकोप विरूप विशङ्क विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध-समूह ।।८।। जरा-मरणोज्झित वीत-विहार, विचिन्तित निर्मल निरहङ्कार। अचिन्त्य-चरित्र विदर्प विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध-समूह ।।९।। विवर्ण विगंध विमान विलोभ, विमाय विकाय विशब्द विशोभ । अनाकुल केवल सर्व विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध-समूह ।।१०।।
(मालिनी) असम-समयसारं चारु-चैतन्य-चिह्न,
परपरिणति-मुक्तं पद्मनन्दीन्द्र-वन्द्यम् । निखिल-गुण-निकेतं सिद्ध-चक्रं विशुद्धं,
स्मरति नमति यो वा स्तौति सोऽभ्येति मुक्तिम् । ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जयमालामहायँ निर्वपामीति स्वाहा
(अडिल्ल छंद) अविनाशी अविकार परम रसधाम हो,
समाधान सर्वज्ञ सहज अभिराम हो। शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनन्त हो,
जगत शिरोमणि सिद्ध सदा जयवन्त हो ।।१।। ध्यान अग्निकर कर्म कलंक सबै दहे,
नित्य निरंजन देव सरूपी है रहे। ज्ञायक ज्ञेयाकार ममत्व निवारके, सो परमातम सिद्ध नमूं सिर नायकें ।।२।।
(दोहा) अविचल ज्ञान प्रकाशमय, गुण अनन्त की खान । ध्यान धरै सो पाइये, परम सिद्ध भगवान ।।३।।
इति पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
सिद्ध पूजन (डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत)
(दोहा) चिदानन्द स्वातमरसी, सत् शिव सुन्दर जान ।
ज्ञाता-दृष्टा लोक के, परम सिद्ध भगवान ।। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
ज्यों-ज्यों प्रभुवर जलपान किया, त्यों-त्यों तृष्णा की आग जली। थी आश कि प्यास बुझेगी अब, पर यह सब मृगतृष्णा निकली।। आशा-तृष्णा से जला हृदय, जल लेकर चरणों में आया।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया।। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जन्म-जरा-मृत्युविनाशनाय जलं नि. स्वाहा।
तन का उपचार किया अबतक, उस पर चंदन का लेप किया। मल-मल कर खूब नहा करके, तन के मल का विक्षेप किया।। अब आतम के उपचार हेतु, तुमको चन्दन-सम है पाया।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ।। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने संसारतापविनाशनाय चन्दनं नि. स्वाहा।
सचमुच तुम अक्षत हो प्रभुवर, तुम ही अखण्ड अविनाशी हो। तुम निराकार अविचल निर्मल, स्वाधीन सफल संन्यासी हो।। ले शालिकणों का अवलम्बन, अक्षयपद! तुमको अपनाया। होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया।। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि. स्वाहा।
जो शत्रु जगत का प्रबल काम, तुमने प्रभुवर उसको जीता। हो हार जगत के वैरी की, क्यों नहिं आनन्द बढ़े सब का।। प्रमुदित मन विकसित सुमन नाथ, मनसिज को ठुकराने आया।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया।। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि. स्वाहा।
मैं समझ रहा था अब तक प्रभ, भोजन से जीवन चलता है।
भोजन बिन नरकों में जीवन, भरपेट मनुज क्यों मरता है।। जिनेन्द्र अर्चना/00000
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जिनेन्द्र अर्चना
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