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________________ तुम भोजन बिन अक्षय सुखमय, यह समझ त्यागने हूँ आया। होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया।। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा। आलोक ज्ञान का कारण है, इन्द्रिय से ज्ञान उपजता है। यह मान रहा था पर क्यों कर, जड़-चेतन-सर्जन करता है।। मेरा स्वभाव है ज्ञानमयी, यह भेद-ज्ञान पा हरषाया। होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया।। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा। मेरा स्वभाव चेतनमय है, इसमें जड़ की कुछ गंध नहीं। मैं हूँ अखण्ड चित्पिण्ड चण्ड, पर से कुछ भी सम्बन्ध नहीं।। यह धूप नहीं, जड़-कर्मों की रज आज उड़ाने मैं आया। होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया।। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्मदहनाय धूपं नि. स्वाहा। शुभ-कर्मों का फल विषय-भोग, भोगों में मानस रमा रहा। नित नई लालसायें जागी, तन्मय हो उनमें समा रहा ।। रागादि विभाव किये जितने, आकुलता उनका फल पाया। होकर निराश सब जगभर से, अब सिद्ध-शरण में मैं आया।। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा। जल पिया और चन्दन चरचा, मालायें सुरभित सुमनों की। पहनी, तन्दुल सेये व्यंजन, दीपावलियाँ की रत्नों की ।। सुरभी धूपायन की फैली, शुभ-कर्मों का सब फल पाया। आकुलता फिर भी बनी रही, क्या कारण जान नहीं पाया।। जब दृष्टि पड़ी प्रभुजी तुम पर, मुझको स्वभाव का भान हुआ। सुख नहीं विषय-भोगों में है, तुम को लख यह सद्ज्ञान हुआ। जल से फल तक का वैभव यह, मैं आज त्यागने हूँ आया। होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया।। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं नि. स्वाहा। ११०४000 200 जिनेन्द्र अर्चना जयमाला (दोहा) आलोकित हो लोक में, प्रभु परमात्मप्रकाश । आनन्दामृत पानकर, मिटे सभी की प्यास ।। (पद्धरि) जय ज्ञान मात्र ज्ञायक स्वरूप, तुम हो अनन्त चैतन्य रूप। तुम हो अखण्ड आनन्द पिण्ड, मोहारि दलन को तुम प्रचण्ड।। रागादि विकारी भाव जार, तुम हुए निरामय निर्विकार । निर्द्वन्द्व निराकुल निराधार, निर्मम निर्मल हो निराकार ।। नित करत रहत आनन्द रास, स्वाभाविक परिणति में विलास । प्रभु शिव-रमणी के हृदय हार, नित करत रहत निज में विहार ।। प्रभु भवदधि यह गहरो अपार, बहते जाते सब निराधार । निज परिणति का सत्यार्थभान, शिवपद दाता जो तत्त्वज्ञान ।। पाया नहिं मैं उसको पिछान, उलटा ही मैंने लिया मान । चेतन को जड़मय लिया जान, तन में अपनापा लिया मान ।। शुभ-अशुभ राग जो दुःखखान, उसमें माना आनन्द महान । प्रभु अशुभ-कर्म को मान हेय, माना पर शुभ को उपादेय ।। जो धर्म-ध्यान आनन्द रूप, उसको जाना मैं दुःख स्वरूप। मनवांछित चाहे नित्य भोग, उनको ही माना है मनोग ।। इच्छा-निरोध की नहीं चाह, कैसे मिटता भव-विषय-दाह। आकुलतामय संसार-सुख, जो निश्चय से है महा-दुःख ।। उसकी ही निश-दिन करी आश, कैसे कटता संसार-पाश । भव-दुःख का पर को हेतु जान, पर से ही सुख को लिया मान ।। मैं दान दिया अभिमान ठान, उसके फल पर नहिं दिया ध्यान । पूजा कीनी वरदान माँग, कैसे मिटता संसार स्वाँग ।। तेरा स्वरूप लख प्रभु आज, हो गये सफल सम्पूर्ण काज । मो उर प्रकट्यो प्रभु भेद-ज्ञान, मैंने तुम को लीना पिछान ।। जिनेन्द्र अर्चना/000000 56
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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