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नाना व्यंजन के भोग किये, पर क्षुधा-रोग नहीं मिट पाता। ज्यों-ज्यों मैं इसमें लिप्त रहा, त्यों-त्यों ही यह बढ़ता जाता।। यह व्याधि बड़ी है दुःखदायी, इससे छुटकारा कब पाऊँ। नैवेद्य समर्पित चरणों में, हे नाथ ! तुम्हारे गुण गाऊँ ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शाख-गुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। जब अगणित दीपों के द्वारा, संसार-तिमिर छंट जाता है। अज्ञान अँधेरा छंटा नहीं, जो भव-भव भ्रमण कराता है।। यह दीप सँजोकर लाया हूँ, इसमें प्रकाश भर दो प्रभुवर ।
तेरे सदृश बन जाने को, अति व्याकुल हूँ मेरे जिनवर ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अरे भार-सा जग सारा, नित आत्मग्लानि जो उपजाए। ले हाथों में धूप सुगंधित, नभ मण्डल नित महकाये ।। कब धन्य सुअवसर मुझे मिले, जब मुक्तिरमा का वरण करूँ। इस भवसागर से तिर जाऊँ, मम मस्तक प्रभु चरण धरूँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।
अखिल विश्व के फल हैं अर्पित, आवागमन मिटा दो नाथ । शिव मन्दिर में वास करूँ नित, घरगृहस्थी का छूटे साथ ।। अपने दुःख से दुःखी रहा मैं, नहीं किसी का किंचित् दोष ।
देव-शास्त्र-गुरु का आलम्बन, जग में देता सुख-संतोष ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टद्रव्य के सम्मिश्रण से, मैंने यह अर्घ्य बनाया है। इसको स्वीकार करो जिनवर, चरणों में नाथ चढ़ाया है।। मम राह कंटकाकीर्ण प्रभो, इसको निष्कंटक बना सकूँ ।
वह शक्ति मुझे दो दयानिधे, जिससे अनर्घ्यपद प्राप्त करूँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
(पद्धरी छन्द) जय वीतराग सर्वज्ञ नाथ, छूटे न कभी प्रभु चरण साथ । तुम अष्टकर्म का किये नाश, जग को है तुममें पूर्ण आश ।। हित का उपदेश दिया जिनवर, है यह संसार कहा नश्वर । कर चार घातिया कर्म हनन, बतलाया आगम करो मनन ।। प्रभु छियालीस गुण के हो भण्डार, अतिशय की महिमा है अपार । अष्टादश दोष किये अभाव, नहिं रखें किसी से बैर भाव ।। अतएव समर्पित है जीवन, अर्पित है मेरा नश्वर तन । अब तो सन्मार्ग दिखाओ देव, विनती करता प्रभु चरण सेव।। जिनकी ध्वनि है ओंकार रूप, नहिं इसमें कोई रंक भूप । सब बैठ करें श्रुत का अभ्यास, तब सिद्धालय में होय वास ।। अज्ञान-अंधेरा करत दूर, क्रोधादि कषायें होत चूर । है द्वादशांग वाणी अपार, जिनका नहिं पावै कोई पार ।। चंदन-सम शीतल जगत होय, दश अष्ट महा भाषा सुसोह। यह सप्त भंग नहीं द्वंद्व फंद, सब कर्म नशावें मंद-मंद ।। जग का अँधियारा मिटत जात, अब राह सुगम जिनवाणी मात। यह शीश नमत है बार-बार, परमागम का जब पढ़ें सार ।। जिनगुरु की महिमा है महान, जो नग्न दिगम्बर करत ध्यान । गज, मृग, सिंह विचरत चहूँ ओर, विप्लव फैलावें बैरी घोर ।। वे पंच महाव्रत धरें धीर, आतम का मंथन हरै पीर । पूजें सब उनको भक्तिभाव, ढिंग बैठ सुनें सब धर्म चाव।। वे काम क्रोध, भय करें त्याग, तब ही बुझ पाये राग-आग। वन में रहते वैराग्य धार, भवसागर से लग जायें पार ।। विषयों की आशा से विरक्त, सब धन्य कहें बन जायें भक्त। सुर-नर-किन्नर सब भूल द्वेष, ऐसा है गुरुवर तेरा वेष ।।
देव-शास्त्र-गुरु को नमूं, मैं पूजौं धरि ध्यान ।
'अखिल' जगत के जीव सब, पार्वै पद निर्वान ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शाख-गुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला महाऽयं निर्वपामीति स्वाहा।
(इति पुष्पांजलिं क्षिपेत) जिनेन्द्र अर्चना/0000 00
(दोहा)
देव शास्त्र गुरु कथन पर, करो पूर्ण श्रद्धान । मिले शीघ्र ही परम पद, होवै निज कल्याण ।।
1000000 जिनेन्द्र अर्चना
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