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समुच्चय पूजा (श्री देव-शास्त्र-गुरु, विदेह क्षेत्र स्थित बीस तीर्थकर तथा सिद्ध परमेष्ठी) (ब्र. सरदारमलजी 'सच्चिदानन्द' कृत)
(दोहा) देव-शास्त्र-गुरु नमन करि, बीस तीर्थकर ध्याय ।
सिद्ध शुद्ध राजत सदा, नमूं चित्त हुलसाय ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुसमूह! श्री विद्यमानविंशतितीर्थकर समूह! श्री अनन्तानन्त-सिद्धपरमेष्ठी समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
अष्टक अनादिकाल से जग में स्वामिन, जल से शुचिता को माना। शुद्ध निजातम सम्यक् रत्नत्रय, निधि को नहीं पहचाना ।। अब निर्मल रत्नत्रय जल ले, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यः श्री अनन्तानन्तसिद्धपरमेष्ठिभ्यो जन्मजरामत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
भव-आताप मिटावन की, निज में ही क्षमता समता है। अनजाने में अबतक मैंने, पर में की झूठी ममता है।। चन्दन-सम शीतलता पाने, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यः श्री अनन्तान्तसिद्धपरमेष्ठिभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षय पद बिन फिरा, जगत की लख चौरासी योनी में। अष्ट कर्म के नाश करन को, अक्षत तुम ढिंग लाया मैं।। अक्षयनिधि निजकी पाने अब, श्री देव-शास्त्र-गुरु कोध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यः श्री अनन्तानन्तसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्प सुगन्धी से आतम ने, शील स्वभाव नशाया है। मन्मथ बाणों से विन्ध करके, चहुँगति दुःख उपजाया है।।
20000 जिनेन्द्र अर्चना
स्थिरता निज में पाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यः श्री अनन्तान्तसिद्धपरमेष्ठिभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
षट्रस मिश्रित भोजन से, ये भूख न मेरी शांत हुई। आतम रस अनुपम चखने से, इन्द्रिय मन इच्छा शमन हुई।। सर्वथा भूख के मेटन को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यः श्री अनन्तानन्तसिद्धपरमेष्ठिभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा।
जड़दीप विनश्वर को अबतक, समझा था मैंने उजियारा । निज गुण दरशायक ज्ञानदीप से, मिटा मोह का अँधियारा ।। ये दीप समर्पण करके मैं, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यः श्री अनन्तानन्तसिद्धपरमेष्ठिभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
ये धूप अनल में खेने से, कर्मों को नहीं जलायेगी। निज में निज की शक्ति ज्वाला, जो राग-द्वेष नशायेगी।। उस शक्ति दहन प्रकटाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यः श्री अनन्तानन्तसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। पिस्ता बदाम श्रीफल लवंग, चरणन तुम ढिंग मैं ले आया। आतमरस भीने निज गुण फल, मम मन अब उनमें ललचाया। अब मोक्ष महाफल पाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ।। ॐहीं श्री देव-शास्त्र-गरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यः श्री अनन्तानन्त
सिद्धपरमेष्ठिभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। जिनेन्द्र अर्चना/00000
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