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________________ वीतरागता की पोषक ही, जिनवाणी कहलाती है। यह है मुक्ति का मार्ग निरन्तर, हम को जो दिखलाती है।। उस वाणी के अन्तर्तम को, जिन गुरुओं ने पहिचाना है। उन गुरुवर्यों के चरणों में, मस्तक बस हमें झुकाना है।। दिन-रात आत्मा का चिन्तन, मृदु सम्भाषण में वही कथन । निर्वस्त्र दिगम्बर काया से भी, प्रकट हो रहा अन्तर्मन ।। निर्ग्रन्थ दिगम्बर सद्ज्ञानी, स्वातम में सदा विचरते जो। ज्ञानी-ध्यानी-समरससानी, द्वादश विधि तप नित करते जो।। चलते-फिरते सिद्धों-से गुरु-चरणों में शीश झुकाते हैं। हम चलें आपके कदमों पर, नित यही भावना भाते हैं।। हो नमस्कार शुद्धातम को, हो नमस्कार जिनवर वाणी। हो नमस्कार उन गुरुओं को, जिनकी चर्या समरससानी ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये महायँ निर्वपामीति स्वाहा (दोहा) दर्शन दाता देव हैं, आगम सम्यग्ज्ञान । गुरु चारित्र की खानि हैं, मैं वंदौं धरि ध्यान ।। (इति पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्) भजन प्रभुपैयह वरदान सुपाऊँ, फिर जग कीच बीच नहीं आऊँ ।।टेक।। जल गंधाक्षत पुष्प सुमोदक, दीप धूप फल सुन्दर ल्याऊँ। आनन्द जनककनकभाजन धरि, अर्घ अनर्घ हेतुपद ध्याऊँ।।१।। आगम के अभ्यास मांहिं पुनि, चित एकाग्र सदैव लगाऊँ। संतनिकीसंगति तजि केमैं, अन्य कहँ इक छिन नहिं जाऊँ।।२।। दोषवाद में मौन रहूँ फिर, पुण्य पुरुष गुण निश-दिन गाऊँ। राग-दोष सब ही को टारी, वीतराग निज भाव बढ़ाऊँ।।३।। बाहिर दृष्टि खेंच के अन्दर, परमानन्द स्वरूप लखाऊँ। 'भागचन्द शिव प्राप्त नजोलों, तोलों तुम चरणाम्बुज ध्याऊँ।।४।। देव-शास्त्र-गुरु पूजा (अखिल बंसल कृत) (दोहा) तीन लोक के जीव सब, आकुल व्याकुल आज । देव-शास्त्र-गुरु शरण लें, सकल सुधारें काज ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुसमूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुसमूह अत्र तिष्ठ तिष्ठः ठः ठः। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुसमूह अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । अष्टक मैं तो चहुँगति में भटक चुका, दर्शन को प्रभुवर तरस रहा। जिनवर चरणों में जगह मिले, सुख सौम्य जहाँ पर बरस रहा ।। कर्मोदय से झुलसा स्वामी, शीतलता मुझको मिल जाये। अमृत-जल से भरकर गगरी, सिंचित फुलवारी खिल जाये।। ॐह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो जन्म-जरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। मैं पंच पाप में भरमाया, परहित कुछ काम नहीं आया। मन वायु वेग-सा चंचल है, जिसको मैं बाँध नहीं पाया ।। आक्रोश अग्नि के शमन हेतु, चन्दन अर्पण ढिंग लाया हूँ। संसार दाह का नाश करो, हे नाथ शरण में आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा। किंचित् वैभव की चाह नहीं, ना राज-पाट की अभिलाषा। रत्नत्रय निधि बस मिल जाये, मन में यह जाग उठी आशा ।। मैं अक्षय गुण का भण्डारी, फिर भी खुद को न पहिचाना। यह अक्षत पुंज समर्पित हैं, जिनको मैंने अपना माना ।। ॐह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। विषयों का सेवन भोग किया, मधुरस अधरों से पीता था। अगणित पापों का बोझ लिये, सुख की चाहत में जीता था।। हे नाथ आपके चरणाम्बुज की, महक व्याप्त है कण-कण में। चरणों में सुमन समर्पित हैं, चैतन्य सुरभि है जीवन में ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। जिनेन्द्र अर्चना जिनेन्द्र अर्चना MINIMIT९५ 48
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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