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पर पुद्गल का भक्षण करके, यह भूख मिटानी चाही थी। इस नागिन से बचने को प्रभु, हर चीज बनाकर खाई थी।। मिष्टान्न अनेक बनाये थे, दिन-रात भखे न मिटी प्रभुवर ।
अब संयम-भाव जगाने को, लाया हूँ ये सब थाली भर ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । पहले अज्ञान मिटाने को, दीपक था जग में उजियाला। उससे न हुआ कुछ तब युग ने, बिजली का बल्ब जला डाला।। प्रभु भेद-ज्ञान की आँख न थी, क्या कर सकती थी यह ज्वाला। यह ज्ञान है कि अज्ञान कहो, तुमको भी दीप दिखा डाला।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
शुभ-कर्म कमाऊँ सुख होगा, अबतक मैंने यह माना था। पाप कर्म को त्याग पुण्य को, चाह रहा अपनाना था ।। किन्तु समझ कर शत्रु कर्म को, आज जलाने आया हूँ। लेकर दशांग यह धूप, कर्म की धूम उड़ाने आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्योः अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। भोगों को अमृतफल जाना, विषयों में निश-दिन मस्त रहा। उनके संग्रह में हे प्रभुवर! मैं व्यस्त-त्रस्त-अभ्यस्त रहा।। शुद्धात्मप्रभा जो अनुपम फल, मैं उसे खोजने आया हूँ। प्रभु सरस सुवासित ये जड़फल, मैं तुम्हें चढ़ाने लाया हूँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। बहुमूल्य जगत का वैभव यह, क्या हमको सुखी बना सकता। अरे पूर्णता पाने में, इसकी क्या है आवश्यकता ।। मैं स्वयं पूर्ण हूँ अपने में, प्रभु है अनर्घ्य मेरी माया । बहुमूल्य द्रव्यमय अर्घ्य लिये, अर्पण के हेतु चला आया।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा।
20000 जिनेन्द्र अर्चना
जयमाला
(दोहा) समयसार जिनदेव हैं, जिन-प्रवचन जिनवाणी। नियमसार निर्ग्रन्थ गुरु, करें कर्म की हानि ।।
(वीरछन्द) हे वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, तुमको ना अबतक पहिचाना। अतएव पड़ रहे हैं प्रभुवर, चौरासी के चक्कर खाना ।। करुणानिधि तुमको समझ नाथ, भगवान भरोसे पड़ा रहा। भरपूर सुखी कर दोगे तुम, यह सोचे सन्मुख खड़ा रहा ।। तुम वीतराग हो लीन स्वयं में, कभी न मैंने यह जाना। तुम हो निरीह जग से कृत-कृत, इतना ना मैंने पहिचाना ।। प्रभु वीतराग की वाणी में, जैसा जो तत्त्व दिखाया है। जो होना है सो निश्चित है, केवलज्ञानी ने गाया है ।। उस पर तो श्रद्धा ला न सका, परिवर्तन का अभिमान किया। बनकर पर का कर्ता अब तक, सत् का न प्रभो सम्मान किया ।। भगवान तुम्हारी वाणी में, जैसा जो तत्त्व दिखाया है। स्याद्वाद-नय, अनेकान्त-मय, समयसार समझाया है।। उस पर तो ध्यान दिया न प्रभो, विकथा में समय गँवाया है। शुद्धात्म-रुचि न हुई मन में, ना मन को उधर लगाया है।। मैं समझ न पाया था अबतक, जिनवाणी किसको कहते हैं। प्रभु वीतराग की वाणी में, कैसे क्या तत्त्व निकलते हैं। राग धर्ममय धर्म रागमय, अबतक ऐसा जाना था। शुभ-कर्म कमाते सुख होगा, बस अबतक ऐसा माना था।। पर आज समझ में आया है, कि वीतरागता धर्म अहा। राग-भाव में धर्म मानना, जिनमत में मिथ्यात्व कहा ।।
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जिनेन्द्र अर्चना
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