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देखनीक लखि रूप, वंदिकरि वंदनीक हुव । पूजनीक पद पूज ध्यान करि ध्यावनीक ध्रुव ।। हरष बढ़ाय बजाय, गाय जस अन्तरजामी । दरब चढ़ाय अघाय, पाय संपति निधि स्वामी ।। तुम गुण अनेक मुख एक सौं, कौन भाँति वरनन करौं । मन-वचन-काय बहु प्रीति सौं, एक नाम ही सौं तरौं ।। ९ ।। चैत्यालय जो करै, धन्य सो श्रावक कहिये । तामैं प्रतिमा धरै धन्य सो भी सरदहिये ।। जो दोनों विस्तरै, संघ नायक ही जानौँ । बहुत जीव कों धर्म मूल कारन सरधानौं । इस दुखमकाल विकराल में, तेरो धर्म जहाँ चले। हे नाथ! काल चौथो तहाँ ईति भीति सब ही टलै ।। १० ।। दर्शन दशक कवित्त चित्त सौं पढ़ें त्रिकालं । प्रीतम सनमुख होय, खोय चिंता गृह - जालं ।। सुख में निसि - दिन जाय, अन्त सुरराय कहावै । सुर कहाय शिव पाय, जनम - मृतु - जरा मिटावै ।। धनि जैन-धर्म दीपक प्रकट, पाप तिमिर छयकार है। लखि 'साहिबराय' सु आँख सौं, सरधा तारनहार है ।। ११ ।। आज हम जिनराज तुम्हारे द्वारे आये ।
हाँ जी हाँ हम आये आये । । टेक ॥। देखे देव जगत के सारे, एक नहीं मन भाये । पुण्य-उदय से आज तिहारे, दर्शन कर सुख पाये ।। १ ।। जन्म-मरण नित करते-करते, काल अनन्त गमाये । अब तो स्वामी जन्म-मरण का दुखड़ा सहा न जाये ।। २ ।। भव-सागर में नाव हमारी, कब से गोता खाये । तुम ही स्वामी हाथ बढ़ाकर, तारो तो तिर जाये || ३ || अनुकम्पा हो जाय आपकी, आकुलता मिट जाये। 'पंकज' की प्रभु यही बीनती चरण-शरण मिल जाये ॥ ४ ॥
जिनेन्द्र अर्चना
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दर्शन-पाठ
(श्री युगलजी कृत )
दर्शन श्री देवाधिदेव का दर्शन पाप विनाशन है। दर्शन है सोपान स्वर्ग का, और मोक्ष का साधन है ।। १ ।। श्री जिनेन्द्र के दर्शन औ, निर्ग्रन्थ साधु के वंदन से । अधिक देर अघ नहीं रहै, जल छिद्रसहित कर में जैसे ।। २ ।। वीतराग - मुख के दर्शन की, पद्मराग-सम शांतप्रभा । जन्म-जन्म के पातक क्षण में, दर्शन से हों शांत विदा ।। ३ ।। दर्शन श्री जिनदेव सूर्य, संसार- तिमिर का करता नाश । बोध- प्रदाता चित्त पद्म को, सकल अर्थ का करे प्रकाश ॥ ४ ॥ दर्शन श्री जिनेन्द्रचन्द्र का, सद्धर्मामृत बरसाता । जन्मदाह को करे शांत औ, सुख वारिधि को विकसाता ।। ५ ।। सकल तत्त्व के प्रतिपादक, सम्यक्त्व आदि गुण के सागर । शांत दिगम्बररूप नमूँ, देवाधिदेव तुमको जिनवर ।। ६ ।। चिदानन्दमय एकरूप, वंदन जिनेन्द्र परमात्मा को । हो प्रकाश परमात्म नित्य, मम नमस्कार सिद्धात्मा को ॥ ७ ॥ अन्य शरण कोई न जगत में, तुम्हीं शरण मुझको स्वामी । करुण भाव से रक्षा करिये, हे जिनेश अन्तर्यामी ॥८ ॥ रक्षक नहीं शरण कोई नहिं तीन जगत में दुखत्राता । वीतराग प्रभु-सा न देव है, हुआ न होगा सुखदाता ||९ ।। दिन-दिन पाऊँ जिनवरभक्ति, जिनवरभक्ति, जिनवरभक्ति । सदा मिले वह सदा मिले, जब तक न मिले मुझको मुक्ति ॥ १० ॥ नहीं चाहता जैनधर्म के बिना, चक्रवर्ती होना । नहीं अखरता जैनधर्म से सहित, दरिद्री भी होना ।। ११ ।। जन्म-जन्म के किये पाप ओ बन्धन कोटि-कोटि भव के । जन्म - मृत्यु औ, जरा रोग, सब कट जाते जिनदर्शन से ।। १२ ।। आज युगल दृग हुए सफल, तुम चरण कमल से हे प्रभुवर । हे त्रिलोक के तिलक! आज, लगता भवसागर चुल्लू भर ।। १३ ।।
जिनेन्द्र अर्चना
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