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दर्शन-दशक
(श्री साहिबरायजी कृत) देखे श्री जिनराज, आज सब विघन नशाये । देखे श्री जिनराज, आज सब मंगल आये ।। देखे श्री जिनराज, काज करना कुछ नाहीं। देखे श्री जिनराज, हौस पूरी मन माहीं ।। तुम देखे श्री जिनराज पद, भौजल अंजुलि जल भया। चिंतामणि पारस कल्पतरु, मोह सबनि सौं उठि गया ।।१।।
देखे श्री जिनराज, भाज अघ जाहिं दिसंतर । देखे श्री जिनराज, काज सब होंय निरन्तर ।। देखे श्री जिनराज, राज मनवांछित करिये । देखे श्री जिनराज, नाथ दुःख कबहुँ न भरिये ।। तुम देखे श्री जिनराज पद, रोम-रोम सुख पाइये । धनि आज दिवस धनि, अब घरी, माथ नाथ को नाइये।।२।। धन्य-धन्य जिनधर्म, कर्म कों छिन में तोरै । धन्य-धन्य जिनधर्म, परमपद सौं हित जोरै ।। धन्य-धन्य जिनधर्म, भर्म को मूल मिटावै । धन्य-धन्य जिनधर्म, शर्म की राह बतावै ।। जग धन्य-धन्य जिनधर्म यह, सो परकट तुमने किया। भवि खेत पापतप तपत कौं, मेघरूप है सुख दिया ।।३।। तेज सूर-सम कहूँ, तपत दुःखदायक प्रानी। कांति चन्द-सम कहूँ, कलंकित मूरत मानी ।। वारिधि-सम गुण कहूँ, खार में कौन भलप्पन । पारस-सम जस कहूँ, आप-सम करै न पर तन ।। इन आदि पदारथ लोक में, तुम-समान क्यों दीजिये। तुम महाराज अनुपमादर्श, मोहि अनूपम कीजिये ।।४।।
0000000 जिनेन्द्र अर्चना
तब विलम्ब नहिं किया, चीर द्रौपदी को बाढ्यौ। तब विलम्ब नहिं कियो, सेठ सिंहासन चाढ्यौ ।। तब विलम्ब नहिं कियो, सीय पावकतै टास्यौ। तब विलम्ब नहिं कियो, नीर मातंग उबास्यौ ।। इह विधि अनेक दुःख भगत के, चूर दूर किय सुख अवनि। प्रभु मोहि दुःख नासनि विषै, अब विलंब कारण कवनि ॥५॥ कियो भौनतें गौन, मिटी आरति संसारी । राह आन तुम ध्यान, फिकर भाजी दुःखकारी ।। देखे श्री जिनराज, पाप मिथ्यात विलायो। पूजाश्रुति बहु भगति, करत सम्यक् गुण आयो ।। इस मारवाड़ संसार में, कल्पवृक्ष तुम दरश है। प्रभु मोहि देहु भौ भौ विषै, यह वांछा मन सरस है।।६।।
जय जय श्री जिनदेव, सेव तुमरी अघनाशक । जय जय श्री जिनदेव, भेव षद्रव्य-प्रकाशक ।। जय जय श्री जिनदेव, एक जो प्रानी ध्यावै । जय जय श्री जिनदेव, टेव अहमेव मिटावै ।। जय जय श्री जिनदेव प्रभु, हेत करम-रिपु दलन कौं। हजै सहाय सँघ रायजी, हम तयार सिव-चलन कौं ।।७।।
जय जिनंद आनंदकंद, सुरवृंद वंद्य पद । ज्ञानवान सब जान, सुगुन मनिखान आन पद ।। दीनदयाल कृपाल भविक भौ-जाल निकालक ।
आप बूझ सब सूझ, गूझ नहिं बहुजन पालक ।। प्रभु दीनबन्धु करुणामयी, जग उधरन तारन तरन ।
दुःख रास निकास स्वदास कौं, हमें एक तुम ही सरन ।।८।। १. सीता जिनेन्द्र अर्चना/0001
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