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आराधना पाठ
(पं. द्यानतरायजी कृत )
मैं देव नित अरहंत चाहूँ, सिद्ध का सुमिरन करौं । मैं सूर गुरु मुनि तीन पद ये, साधुपद हिरदय धरौं ।। मैं धर्म करुणामयी चाहूँ, जहाँ हिंसा रंच ना । मैं शास्त्र ज्ञान विराग चाहूँ, जासु में परपंच ना ।। १ ।। चौबीस श्री जिनदेव चाहूँ, और देव न मन बसैं । जिन बीस क्षेत्र विदेह चाहूँ, वंदितैं पातक नसैं ।। गिरनार शिखर समेद चाहूँ, चम्पापुर पावापुरी । कैलाश श्री जिनधाम चाहूँ, भजत भाजैं भ्रम जुरी || २ || नव तत्त्व का सरधान चाहूँ, और तत्त्व न मन धरौं । षट् द्रव्य गुण परजाय चाहूँ, ठीक तासों भय हरों ।। पूजा परम जिनराज चाहूँ, और देव नहीं कदा | तिहुँकाल की मैं जाप चाहूँ, पाप नहिं लागे कदा || ३ || सम्यक्त्व दर्शन ज्ञान चारित, सदा चाहूँ भाव सों। दशलक्षणी मैं धर्म चाहूँ, महा हरख उछाव सों ।। सोलह कारण दुख निवारण, सदा चाहूँ प्रीति सों। मैं नित अठाई पर्व चाहूँ, महामंगल रीति सों ॥ ४ ॥ मैं वेद चारों सदा चाहूँ, आदि अन्त निवाह सों। पाये धरम के चार चाहूँ, अधिक चित्त उछाह सों । मैं दान चारों सदा चाहूँ, भुवनवशि लाहो लहूँ । आराधना मैं चार चाहूँ, अन्त में ये ही गहूँ ॥ ५ ॥ भावना बारह जु भाऊँ, भाव निरमल होत हैं । मैं व्रत जु बारह सदा चाहूँ, त्याग भाव उद्योत हैं। प्रतिमा दिगम्बर सदा चाहूँ, ध्यान आसन सोहना । वसुकर्म तैं मैं छुटा चाहूँ, शिव लहूँ जहँ मोह ना || ६ ||
जिनेन्द्र अर्चना
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मैं साधुजन को संग चाहूँ, प्रीति तिनही सों करौं । मैं पर्व के उपवास चाहूँ, और आरंभ परिहरौं ।।
इस दुखद पंचमकाल माहीं, सुल श्रावक मैं लह्यौ । अरु महाव्रत धरि सकौं नाहीं, निबल तन मैंने गह्यौ ॥ ७ ॥ आराधना उत्तम सदा चाहूँ, सुनो जिनराय जी ।
तुम कृपानाथ अनाथ 'द्यानत' दया करना न्याय जी ।। वसुकर्म नाशविकास, ज्ञान प्रकाश मुझको दीजिये । करि सुगति गमन समाधिमरन, सुभक्ति चरनन दीजिये ॥ ८ ॥ देव-स्तुति
वीतराग सर्वज्ञ हितंकर, भविजन की अब पूरो आस ।
ज्ञान- भानु का उदय करो, मम मिथ्यातम का होय विनास ॥ जीवों की हम करुणा पालें, झूठ वचन नहिं कहें कदा । परधन कबहुँ न हरहूँ स्वामी, ब्रह्मचर्य व्रत रखें सदा ।। तृष्णा लोभ बढ़े न हमारा, तोष-सुधा नित पिया करें। श्री जिनधर्म हमारा प्यारा, तिस की सेवा किया करें ।।
दूर भगावें बुरी रीतियाँ, सुखद रीति का करें प्रचार । मेल-मिलाप बढ़ावें हम सब धर्मोन्नति का करें प्रसार ।। सुख-दुख में हम समता धारें, रहें अचल जिमि सदा अटल। न्यायमार्ग को लेश न त्यागें, वृद्धि करें निज आतमबल ।। अष्ट करम जो दुःख हेतु हैं, तिनके क्षय का करें उपाय । नाम आपका जपें निरन्तर, विघ्न-शोक सब ही टल जाय ।। आतम शुद्ध हमारा होवे, पाप- मैल नहिं चढ़े कदा । विद्या की हो उन्नति हम में, धर्म ज्ञान हू बढ़े सदा ।। हाथ जोड़कर शीश नवायें, तुम को भविजन खड़े-खड़े । यह सब पूरो आस हमारी, चरण-शरण में आन पड़े ।।
जिनेन्द्र अर्चना
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