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निज आतमा को आतमा ही जानना है सरलता। निज आतमा की साधना आराधना है सरलता ।। वैराग्य-जननी नन्दिनी अभिनन्दिनी है सरलता। है साधकों की संगिनी आनन्द-जननी सरलता ।।४ ।। हे सर्वदर्शी सुमति जिन! आनन्द के रसकन्द हो । हो शक्तियों के संग्रहालय ज्ञान के घनपिण्ड हो ।। निर्लोभ हो निर्दोष हो निष्क्रोध हो निष्काम हो । हो परम-पावन पतित-पावन शौचमय सुखधाम हो।।५।। मानता आनन्द सब जग हास में परिहास में । पर आपने निर्मद किया परिहास को परिहास में ।। परिहास भी है परिग्रह जग को बताया आपने । हे पद्मप्रभ परमातमा, पावन किया जग आपने ।।६।। पारस सुपारस है वही पारस करे जो लोह को। वह आतमा ही है सुपारस जो स्वयं निर्मोह हो ।। रति-राग वर्जित आतमा ही लोक में आराध्य है। निज आतमा का ध्यान ही बस साधना है साध्य है।।७।। रति-अरतिहर श्री चन्द्र जिन तुम ही अपूरव चन्द्र हो। निश्शेष हो निर्दोष हो निर्विघ्न हो निष्कंप हो ।। निकलंक हो अकलंक हो निष्ताप हो निष्पाप हो। यदि हैं अमावस अज्ञजन तो पूर्णमासी आप हो ।।८।। विरहित विविधविधि सुविधि जिन निज आतमा में लीन हो। हो सर्वगुण सम्पन्न जिन सर्वज्ञ हो स्वाधीन हो ।। शिवमग बतावनहार हो शत इन्द्रकरि अभिवन्द्य हो। दुख-शोकहर भ्रम-रोगहर सन्तोषकर सानन्द हो ।।९।। आपका गुणगान जो जन करें नित अनुराग से ।
सब भय भयंकर स्वयं भयकरि भाग जावें भाग से।। १. पुष्पदंत
cuum जिनेन्द्र अर्चना
तुम हो स्वयंभू नाथ निर्भय जगत को निर्भय किया। हो स्वयं शीतल मलयगिरि से जगत को शीतल किया ।।१०।। नरतन विदारन मरन-मारन मलिन भाव विलोक के। दुर्गन्धमय मलमूत्रमय नरकादि थल अवलोक के।। जिनके न उपजे जुगुप्सा समभाव महल-मसान में। वे श्रेय श्रेयस्कर शिरि (श्री) श्रेयांस विचरें ध्यान में ।।११।। निज आतमा के भान बिन सुख मानकर रति-राग में। सारा जगत नित जल रहा है वासना की आग में ।। तुम वेद-विरहित वेदविद् जिन वासना से दूर हो । वसुपूज्यसुत बस आप ही आनन्द से भरपूर हो ।।१२।। बस आतमा ही बस रहा जिनके विमल श्रद्धान में। निज आतमा बस एक ही नित रहे जिनके ध्यान में। सब द्रव्य-गुण-पर्याय जिनके नित्य झलकें ज्ञान में। वे वेद विरहित विमल जिन विचरें हमारे ध्यान में ।।१३।। तुम हो अनादि अनन्त जिन तुम ही अखण्डानन्त हो। तुम वेद विरहित वेदविद् शिवकामिनी के कन्त हो। तुम सन्त हो भगवन्त हो तुम भवजलधि के अन्त हो। तुम में अनन्तानन्त गुण तुम ही अनन्तानन्त हो ।।१४।। हे धर्म जिन सद्धर्ममय सत् धर्म के आधार हो । भवभूमि का परित्याग कर जिन भवजलधि के पार हो।। आराधना आराधकर आराधना के सार हो। धरमातमा परमातमा तुम धर्म के अवतार हो ।।१५।। मोहक महल मणिमाल मण्डित सम्पदा षट्खण्ड की। हे शान्ति जिन तृण-सम तजी ली शरण एक अखण्ड की।। पायो अखण्डानन्द दर्शन ज्ञान बीरज आपने ।
संसार पार उतारनी दी देशना प्रभु आपने ।।१६।। जिनेन्द्र अर्चना
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