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तुमने बताया जगत को प्रत्येक कण स्वाधीन है। कर्ता न धर्ता कोई है अणु-अणु स्वयं में लीन है।।२३।। हे पाणिपात्री वीर जिन! जग को बताया आपने । जग-जाल में अबतक फँसाया पुण्य एवं पाप ने ।। पुण्य एवं पाप से है पार मग सुख-शान्ति का। यह धर्म का है मरम यह विस्फोट आतम क्रान्ति का ।।२४।।
(सोरठा) पुण्य-पाप से पार, निज आतम का धर्म है।
महिमा अपरम्पार, परम अहिंसा है यही ।। विशेष :- इस जिनेन्द्र-वन्दना में चौबीस परिग्रहों से रहित चौबीस तीर्थंकरों की वन्दना
की गई है। एक-एक तीर्थंकर की स्तुति में क्रमशः एक-एक परिग्रह के अभाव को घटित किया गया है।
मनहर मदन तन वरन सुवरन सुमन सुमन-समान ही। धन-धान्य पूरित सम्पदा अगणित कुबेर-समान थी।। थीं उर्वशी सी अंगनाएँ संगिनी संसार की। श्री कुन्थु जिन तृण-सम तर्जी ली राह भवदधि पार की।।१७।। हे चक्रधर! जग जीतकर षट्खण्ड को निज वश किया। पर आतमा निज नित्य एक अखण्ड तुम अपना लिया ।। हे ज्ञानघन अरनाथ जिन! धन-धान्य को ठुकरा दिया। विज्ञानघन आनन्दघन निज आतमा को पा लिया ।।१८।। हे दुपद-त्यागी मल्लिजिन! मन-मल्ल का मर्दन किया। एकान्त पीड़ित जगत को अनेकान्त का दर्शन दिया ।। तुमने बताया जगत को क्रमबद्ध है सब परिणमन । हे सर्वदर्शी सर्वज्ञानी! नमन हो शत-शत नमन ।।१९।। मुनिमनहरण श्री मुनीसुव्रत चतुष्पद परित्याग कर। निजपद विहारी हो गये तुम अपद पद परिहार कर ।। पाया परमपद आपने निज आतमा पहिचान कर। निज आतमा को जानकर निज आतमा का ध्यान धर ।।२०।। निजपद विहारी धरमधारी धरममय धरमातमा। निज आतमा को साध पाया परमपद परमातमा ।। हे यान-त्यागी नमी! तेरी शरण में मम आतमा । तूने बताया जगत को सब आतमा परमातमा ।।२१।। आसन बिना आसन जमा गिरनार पर घनश्याम तन। सद्बोध पाया आपने जग को बताया नेमि जिन ।। स्वाधीन है प्रत्येक जन स्वाधीन है प्रत्येक कन। परद्रव्य से है पृथक् पर हर द्रव्य अपने में मगन ।।२२।। तुम हो अचेलक पार्श्वप्रभु ! वस्त्रादि सब परित्याग कर। तुम वीतरागी हो गये रागादिभाव निवार कर ।।
दर्शन-स्तुति निरखत जिनचन्द्र-वदन स्व-पद सुरुचि आई। प्रकटी निज आन की पिछान ज्ञान भान की। कला उद्योत होत काम-जामनी पलाई ।।निरखत. ।। शाश्वत आनन्द स्वाद पायो विनस्यो विषाद । आन में अनिष्ट-इष्ट कल्पना नसाई । निरखत. ।। साधी निज साध की समाधि मोह-व्याधि की। उपाधि को विराधि मैं आराधना सुहाई ।।निरखत. ।। धन दिन छिन आज सुगुनि चिन्ते जिनराज अबै। सुधरो सब काज 'दौल' अचल रिद्धि पाई । निरखत. ।।
- पं. दौलतराम
जिनेन्द्र अर्चना
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