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जिनपूजन के संदर्भ में श्री कानजी स्वामी के उद्गार
(श्रावकधर्मप्रकाश से संकलित) • भगवान के विरह में उनकी प्रतिमा को साक्षात् भगवान के समान समझकर श्रावक हमेशा दर्शन-पूजन करे। धर्मी को सर्वज्ञ का स्वरूप अपने ज्ञान में भासित हो गया है, इसलिये जिनबिम्ब को देखते ही उसे उनका स्मरण हो जाता है।
.भगवान की प्रतिमा देखते ही अहो ! ऐसे भगवान !! इसप्रकार एकबार भी जिसने सर्वज्ञदेव के यथार्थ स्वरूप को लक्ष्यगत कर लिया, उसका भव से बेड़ा पार है। श्रावक प्रातःकाल भगवान के दर्शन के द्वारा अपने इष्ट ध्येय को स्मरण करके बाद में ही दूसरी प्रवृत्ति करे।
इसीप्रकार स्वयं भोजन करने के पूर्व मुनिवरों को याद करे कि - अहा! कोई सन्तमुनिराज अथवा धर्मात्मा मेरे आँगन में पधारें और भक्तिपूर्वक उन्हें भोजन कराके पीछे मैं भोजन करूँ । श्रावक के हृदय में देव-गुरु की भक्ति का ऐसा प्रवाह बहना चाहिए।
.जिनेन्द्र भगवान के दर्शन-पूजन भी न करे और तू अपने को जैन कहलाये - यह तेरा कैसा जैनपना है? जिस घर में प्रतिदिन भक्तिपूर्वक देव-गुरु-शास्त्र के दर्शन-पूजन होते हैं, मुनिवरों आदि धर्मात्माओं को आदरपूर्वक दान दिया जाता है; वह घर धन्य है और इसके बिना घर तो श्मशान-तुल्य है।
•जिसप्रकार प्रिय पुत्र-पुत्री को न देखे तो माता को चैन नहीं पड़ती अथवा माता को न देखे तो बालक को चैन नहीं पड़ती; उसीप्रकार भगवान के दर्शन के बिना धर्मात्मा को चैन नहीं पड़ती। "अरे रे, आज मुझे परमात्मा के दर्शन नहीं हुए, आज मैंने मेरे भगवान को नहीं देखा, मेरे प्रिय नाथ के दर्शन आज मुझे नहीं मिले।" - इसप्रकार धर्मी को भगवान के दर्शन बिना चैन नहीं पड़ती।
• श्रावक प्रथम तो हमेशा देवपूजा करे । देव अर्थात् सर्वज्ञदेव । श्रावक उन सर्वज्ञदेव का स्वरूप पहचान कर प्रीति एवं बहुमानपूर्वक रोज-रोज उनका दर्शन-पूजन करे। पहले ही सर्वज्ञ की पहचान की बात कही है। जिसने सर्वज्ञ को पहचान लिया है और स्वयं सर्वज्ञ होना चाहता है, उस धर्मी को निमित्तरूप में सर्वज्ञता को प्राप्त अरहंत भगवान के पूजन का उत्साह आता ही है। जिनमन्दिर बनवाना, उसमें जिनप्रतिमा स्थापित करवाना, उनकी पंचकल्याणक पूजा-अभिषेक आदि उत्सव करना, ऐसे कार्यों का उल्लास श्रावक को आता है- ऐसी उसकी भूमिका है, इसलिए उसे श्रावक का कर्तव्य कहा है। जो उसका निषेध करे तो मिथ्यात्व है और मात्र इतने शुभराग को ही धर्म समझ ले तो उसको भी सच्चा श्रावकपना नहीं होता - ऐसा जानो।
.जो निम्रन्थ गुरुओं को नहीं मानता, उनकी पहचान और उपासना नहीं करता, उसको तो सूर्य उगे हुए भी अंधकार है। इसीप्रकार जो वीतरागी गुरुओं के द्वारा प्रकाशित सत् शात्रों का अभ्यास नहीं करता, उसके नेत्र होते हुए भी ज्ञानी उसको अंधा कहते हैं। विकथा पढ़ा करे और शास्त्र-स्वाध्याय न करे, उसके नेत्र किस काम के? श्रीगुरु के पास रहकर जो शास्त्र नहीं सुनता और हृदय में धारण नहीं करता, उस मनुष्य के कान तथा मन नहीं हैं - ऐसा कहा है। ४८00000000000
जिनेन्द्र अर्चना
णमोकार-मंत्र णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ।।
जिनेन्द्र-वन्दना (डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत)
(दोहा) चौबीसों परिग्रह रहित, चौबीसों जिनराज । वीतराग सर्वज्ञ जिन, हितकर सर्व समाज ।।
(हरिगीतिका) श्री आदिनाथ अनादि मिथ्या मोह का मर्दन किया। आनन्दमय ध्रुवधाम निज भगवान का दर्शन किया ।। निज आतमा को जानकर निज आतमा अपना लिया। निज आतमा में लीन हो निज आतमा को पा लिया।।१।। जिन अजित जीता क्रोध रिपु निज आतमा को जानकर । निज आतमा पहिचान कर निज आतमा का ध्यान धर।। उत्तम क्षमा की प्राप्ति की बस एक ही है साधना। आनन्दमय ध्रुवधाम निज भगवान की आराधना ।।२।। सम्भव असम्भव मान मार्दव धर्ममय शुद्धात्मा। तुमने बताया जगत को सब आतमा परमातमा ।। छोटे-बड़े की भावना ही मान का आधार है।
निज आतमा की साधना ही साधना का सार है।।३।। जिनेन्द्र अर्चना/1000