SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्तुति (स्तोत्र) साहित्य जैनदर्शन में विशाल पूजन साहित्य है, परन्तु उतना प्राचीन नहीं; जितना प्राचीन स्तुति साहित्य है। आचार्य समन्तभद्र के स्तोत्र जैनदर्शन के आद्य भक्ति साहित्य में गिने जा सकते हैं। ___ वर्तमान में सम्पूर्ण स्तोत्र साहित्य में भक्तामर स्तोत्र सर्वाधिक प्रचलित स्तोत्र है। लाखों लोग इस स्तोत्र द्वारा प्रतिदिन परमात्मा की आराधना करते हैं। सहस्रों मातायें-बहिनें तो ऐसी भी है, जो इस स्तोत्र का पाठ किये या सुने बिना जल तक ग्रहण नहीं करती हैं। ___ यद्यपि जिनेन्द्र भक्ति का स्तोत्र साहित्य भी एक सशक्त माध्यम रहा है, किन्तु कालान्तर में उक्त स्तोत्र के साथ कुछ ऐसी कल्पित कथायें जुड़ गयी हैं, जिससे भ्रमित होकर भक्त लोगों ने इसको लौकिक कामनाओं की पूर्ति से जोड़ लिया है। स्व. पण्डित मिलापचन्द कटारिया ने अपने शोधपूर्ण लेख में लिखा है__ "इस सरल और वीतराग स्तोत्र को भी मन्त्र-तन्त्रादि और कथाओं के जाल से गूंथकर जटिल व सराग बना दिया है। इसके निर्माण के सम्बन्ध में भी मनगढन्त कथायें रच डाली हैं। मुनि श्री मानतुंगाचार्य द्वारा यह केवल भक्तिभाव से प्रेरित होकर निष्काम भावना से रचा गया भक्तिकाव्य है। इसमें कर्म बन्धन से मुक्त होकर संसारचक्र से छूटने के सिवाय कहीं कोई ऐसा संकेत भी नहीं है, जिसमें भक्त ने भगवान से कुछ लौकिक कामना की हो। ___जहाँ भय व रोग निवारण की परोक्ष चर्चा आई है, वह कामना के रूप में नहीं है; बल्कि वहाँ तो यह कहा है कि परमात्मा की शरण में रहनेवालों को जब विषय-कषायरूप काम नागों का भी विष नहीं चढ़ता तो उसके सामने बेचारे सर्पादि जन्तुओं की क्या कथा? जब आत्मा का अनादिकालीन मिथ्यात्व का १. जैन निबन्ध रत्नावली, पृष्ठ ३३७; वीरशासन संघ, कलकत्ता । जिनेन्द्र अर्चना महारोग मिट जाता है तो तुच्छ जलोदरादि दैहिक रोगों की क्या बात करें? ज्ञानी धर्मात्मा की भक्ति में लौकिक स्वार्थसिद्धि की गन्ध नहीं होती, कंचन-कामिनी की कामना नहीं होती, यश की अभिलाषा नहीं होती और भीरुता भी नहीं होती। भय, आशा, स्नेह व लोभ से या लौकिक कार्यों की पूर्ति के लिए की गई भक्ति तो अप्रशस्तरूप राग होने से पापभाव ही है, उसका नाम भक्ति नहीं है। जब अनेक संस्कृतियाँ मिलती हैं, तब उनका एक-दूसरे पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। जैन पूजन साहित्य पर भी अन्य भारतीय भक्ति साहित्य का प्रभाव देखा जा सकता है, परन्तु जितने भी कर्तृत्वमूलक कथन हैं, उन सभी को अन्य दर्शनों की छाप कहना उचित प्रतीत नहीं होता; क्योंकि जैनदर्शन में व्यवहारनय से उक्त सम्पूर्ण कथन संभव है, परन्तु उसकी मर्यादा औपचारिक ही है। अतः जिनभक्तों का यह मूल कर्तव्य है कि वे जिनभक्ति के स्वरूप को पहिचानें, भक्ति साहित्य में समागत कथनों के वजन को जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में समझें। औपचारिक कथनों एवं वास्तविक कथनों के भेदों को अच्छी तरह पहिचानें: सभी को एक समान सत्य स्वीकार करना उचित नहीं है। पूजन साहित्य मात्र पढ़ लेने या बोल लेने की वस्तु नहीं है, उसका अध्ययन किया जाना आवश्यक है। जैन पूजन और भक्ति साहित्य इतना विशाल है कि उस पर अनेक दृष्टियों से स्वतंत्र रूप से अनुशीलन अपेक्षित है। विविध दृष्टिकोण से उसे वर्गीकृत कर यदि उसकी मीमांसा और समीक्षा की जाये तो एक विशाल ग्रन्थ का निर्माण सहज ही हो सकता है। लगता है कि अभी विद्वानों का ध्यान इस ओर नहीं गया है। पूजन साहित्य पर समीक्षात्मक शोध-खोज की महती आवश्यकता है। मैंने तो यह अल्प प्रयास किया है। यदि शोधी-खोजी विद्वानों का ध्यान इस ओर गया और साधारण पाठकों को इससे अल्प लाभ भी मिला तो में जिमन्द्रे अचको सार्थक समझूमा।। MINITI/४७ 24
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy