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पुनि घाति शेष अघाति विधि, छिन माहिं अष्टम भू बसैं। वसु कर्म विनसै सुगुण वसु, सम्यक्त्व आदिक सब लसैं।। संसार खार अपार, पारावार तरि तीरहिं गये ।
अविकार अकल अरूप शुचि, चिद्रूप अविनाशी भये ।।१२।। निज माहिं लोक अलोक, गुण-परजाय प्रतिबिम्बित भये। रहि हैं अनन्तानन्त काल यथा तथा शिव परिणये ।। धनि धन्य हैं जे जीव नरभव, पाय यह कारज किया। तिन ही अनादि भ्रमण पंच प्रकार, तजि वर सुख लिया ।।१३।। मुख्योपचार दुभेद यों, बड़भागि रत्नत्रय धरैं । अरु धरेंगे ते शिव लहैं, तिन सुयश-जल जग-मल हरै।। इमि जानि आलस हानि, साहस ठानि यह सिख आदरौ। जबलौं न रोग जरा गहै, तबलौं झटिति निज हित करौ।।१४।। यह राग-आग दहै सदा, तातै समामृत सेइये । चिर भजे विषय-कषाय अब तो, त्याग निज-पद बेइये।। कहा रच्यो पर-पद में न तेरो पद यहै क्यों दुख सहै। अब 'दौल' होउ सुखी स्व-पद रचि दाव मत चूको यहै।।१५।।
भक्तामरस्तोत्रम्
(आचार्य मानतुंग कृत) भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा
मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम् । सम्यक्प्रणम्य जिन-पाद-युगं युगादा
वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ।।१।। यः संस्तुतः सकल-वाङ्मय-तत्त्व-बोधा
दुद्भूत-बुद्धि-पटुभिः सुर-लोक-नाथैः । स्तोत्रैर्जगत्रितय-चित्त-हरैरुदारैः
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ।।२।। बुद्धया विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ
स्तोतुं समुद्यत-मतिर्विगत त्रपोऽहम् । बालं विहाय जल-संस्थितमिन्दु-बिम्ब
मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ।।३।। वक्तुं गुणान्गुण-समुद्र शशाङ्क-कान्तान्
कस्ते क्षमः सुर-गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या । कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-नक्र-चक्रं
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ।।४ ।। सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश
कर्तुं स्तवं विगत-शक्तिरपि प्रवृत्तः । प्रीत्यात्म-वीर्यमविचार्य मृगी मृगेन्द्र
नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम् ।।५।। अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम
त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् । यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति
तच्चाम्र-चारु-कलिका-निकरैकहेतुः ।।६।। जिनेन्द्र अर्चना 0000000000000 जिनेन्द्र अर्चना
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(दोहा)
इक नव वसु इक वर्ष की, तीज शुकल वैशाख । कस्यो तत्त्व उपदेश यह, लखि 'बुधजन' की भाख।। लघु-धी तथा प्रमादतें, शब्द-अर्थ की भूल । सुधी सुधार पढ़ो सदा, जो पाओ भव-कूल ।।१६ ।।
भोंदू धनहित अघ करे, अघ से धन नहिं होय। धरम करत धन पाइये, मन-वच जानो सोय ।।
१.अज्ञानी
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जिनेन्द्र अर्चना
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