________________
किन ह न करयो न धरै को, षट् द्रव्यमयी न हरै को। सो लोक माहिं बिन समता, दुख सहै जीव नित भ्रमता ।।१२।। अन्तिम ग्रीवक लौं की हद, पायो अनन्त बिरियाँ पद । पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ, दुर्लभ निज में मुनि साधौ ।।१३ ।। जे भावमोह तैं न्यारे, दृग ज्ञान व्रतादिक सारे । सो धर्म जबै जिय धारै, तब ही सुख अचल निहारै ।।१४ ।। सो धर्म मुनिन करि धरिये, तिनकी करतूति उचरिये। ताको सुनिये भवि प्रानी, अपनी अनुभूति पिछानी ।।१५ ।।
छठवीं ढाल
(हरिगीतिका) षट् काय जीव न हनन तैं, सब विधि दरब हिंसा टरी। रागादि भाव निवार तें, हिंसा न भावित अवतरी ।। जिनके न लेश मृषा न जल, मृण ह बिना दीयौ गहैं। अठ-दश सहस विधि शील धर, चिब्रह्म में नित रमि रहैं।।१।। अन्तर चतुर्दश भेद बाहिर, संग दशधा तैं टलैं । परमाद तजि चउ कर मही लखि, समिति ई- तैं चलें।। जग सुहितकर सब अहितहर, श्रुति सुखद सब संशय हरें। भ्रम-रोग हर जिनके वचन, मुख-चन्द्र तैं अमृत झरें ।।२।। छयालीस दोष बिना सुकुल, श्रावक तनैं घर अशन को। लैं तप बढ़ावन हेत नहिं तन, पोषते तजि रसन को ।। शुचि ज्ञान संयम उपकरण, लखि कैं गहैं लखि कैं धेरै। निर्जन्तु थान विलोकि तन मल, मूत्र श्लेषम परिहरें ।।३।। सम्यक प्रकार निरोध मन-वच-काय आतम ध्यावते । तिन सुथिर मुद्रा देखि मृगगण, उपल खाज खुजावते ।। रस रूप गन्ध तथा फरस अरु, शब्द शुभ असुहावने ।
तिनमें न राग विरोध, पंचेन्द्रिय जयन पद पावने ।।४।। २७०0000000
जिनेन्द्र अर्चना
समता सम्हारै थुति उचारै वन्दना जिनदेव को। नित करें, श्रुति-रति करें प्रतिक्रम, तऊँ तन अहमेव को।। जिनके न न्हौन न दन्तधोवन, लेश अम्बर आवरन । भू माहिं पिछली रयनि में, कछु शयन एकासन करन ।।५।। इक बार दिन में लैं अहार, खड़े अलप निज-पान में। कचलोंच करत न डरत परिषह, सों लगे निज-ध्यान में।। अरि-मित्र महल-मसान कंचन-काँच निन्दन-थुतिकरन । अर्घावतारन असि-प्रहारन में, सदा समता धरन ।।६।। तप तपैं द्वादश, धरै वृष दश, रत्नत्रय सेवै सदा। मुनि साथ में वा एक विचरै, चहैं नहिं भव-सुख-कदा।। यों है सकल संयम चरित, सुनिये स्वरूपाचरन अब । जिस होत प्रकटै आपनी निधि, मिटै पर की प्रवृत्ति सब ।।७।। जिन परम पैनी सुबुधि छैनी, डारि अन्तर भेदिया। वरणादि अरु रागादि तैं, निज भाव को न्यारा किया ।। निज माहिं निज के हेतु, निज कर आपको आपै गयौ। गुण-गुणी ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय, मँझार कछु भेद न रह्यौ ।।८।।
जहँ ध्यान-ध्याता-ध्येय को, न विकल्प वच-भेद न जहाँ। चिद्भाव कर्म चिदेश कर्ता, चेतना किरिया तहाँ ।। तीनों अभिन्न अखिन्न शुध, उपयोग की निश्चल दसा। प्रगटी जहाँ दृग-ज्ञान-व्रत, ये तीनधा एकै लसा ।।९।। परमाण-नय-निक्षेप को, न उद्योत अनुभव में दिखे। दृग-ज्ञान-सुख बलमय सदा, नहिं आन भाव जुमो विषै।। मैं साध्य-साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनि तें। चित्पिण्ड चण्ड अखण्ड सुगुणकरण्ड, च्युति पुनि कलनि तैं।।१०।। यों चिन्त्य निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनन्द लह्यौ। सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा, अहमिन्द्र के नाहीं कह्यौ ।। तब ही शुक्ल ध्यानाग्नि करि, चउ घाति विधि कानन दह्यौ।
सब लख्यौ केवलज्ञान करि, भविलोक कों शिवमग कह्यौ।।११।। जिनेन्द्र अर्चना 10000000
136