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सेमर तरु दल जुत असिपत्र, असि ज्यौं देह विदारैं तत्र । मेरु-समान लोह गलि जाय, ऐसी शीत उष्णता थाय ।। १० ।। तिल-तिल करें देह के खण्ड, असुर भिड़ावैं दुष्ट प्रचण्ड | सिंधु - नीर तैं प्यास न जाय, तो पण एक न बूँद लहाय ॥। ११ ॥ तीन लोक को नाज जु खाय, मिटै न भूख कणा न लहाय । दुःख बहु सागर लौं सहे, करम-जोग तैं नरगति लहै ।। १२ ।। जननी उदर बस्यो नव मास, अंग सकुचतैं पायो त्रास । निकसत जे दुख पाये घोर, तिनको कहत न आवे ओर ।। १३ ।। बालपने में ज्ञान न लह्यौ, तरुण समय तरुणीरत रह्यौ । अर्द्धमृतक-सम बूढ़ापनो, कैसे रूप लखै आपनो ।। १४ ।। कभी अकाम - निर्जरा करै, भवनत्रिक में सुरतन धेरै । विषयचाह - दावानल दह्यो, मरत विलाप करत दुख सह्यो ।। १५ ।। जो विमानवासी हू थाय, सम्यग्दर्शन बिन दुख पाय । तहँ तैं चय थावर-तन धरै, यों परिवर्तन पूरे करै ।। १६ ।। दूसरी ढाल (पद्धरि छन्द)
ऐसे मिथ्यादृग - ज्ञान - चरण-वश, भ्रमत भरत दुख जन्म-मरण ।
तैं इनको जिये सुजान, सुन, तिन संक्षेप कहूँ बखान ॥। १ ।। जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्व, सरधै तिन माहिं विपर्ययत्व । चेतन को है उपयोग रूप, बिनमूरत चिन्मूरत अनूप ।। २ ।। पुद्गल - नभ-धर्म-अधर्म-काल, इनतैं न्यारी है जीव चाल । ताक न जान विपरीत मान, करि करै देह में निज पिछान || ३ || मैं सुखी - दुखी मैं रंक राव, मेरो धन गृह गोधन प्रभाव । मेरे सुत ति मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीन ॥४ ॥
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जिनेन्द्र अर्चना
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तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान । रागादि प्रकट ये दुःखदैन, तिन ही को सेवत गिनत चैन ॥ ५ ॥ शुभ-अशुभ बंध के फल मँझार, रति-अरति करै निजपद बिसार । आतमहित हेतु विराग ज्ञान, ते लखेँ आपको कष्टदान || ६ || रोकी न चाह निज शक्ति खोय, शिवरूप निराकुलता न जोय । याही प्रतीतिजुत कछुक ज्ञान, सो दुखदायक अज्ञान जान ।। ७ ।। इन जुत विषयनि में जो प्रवृत्त, ताको जानों मिथ्याचरित्त । यों मिथ्यात्वादि निसर्ग जेह, अब जे गृहीत सुनिये सु ते ॥ ८ ॥ जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव, पोषै चिर दर्शनमोह एव । अन्तर रागादिक धरै जेह, बाहर धन अम्बर तैं सनेह ।। ९ ।।
धार कुलिंग लहि महत भाव, ते कुगुरु जन्म- जल उपल नाव । जे राग-द्वेष मल करि मलीन, वनिता गदादिजुत चिह्न चीन ।। १० ।।
ते हैं कुदेव तिनकी जु सेव, शठ करत न तिन भव-भ्रमण छेव । रागादि भावहिंसा समेत, दर्वित त्रस थावर मरण खेत ।। ११ ।।
क्रिया तिन्हें जानहु धर्म, तिन सरधै जीव लहै अशर्म । याकूँ गृहीत मिथ्यात्व जान, अब सुन गृहीत जो है कुज्ञान ।। १२ ।। एकान्तवाद - दूषित समस्त, विषयादिक पोषक अप्रशस्त । कपिलादि-रचित श्रुत को अभ्यास, सो है कुबोध बहु देन त्रास ।। १३ ।। जो ख्याति-लाभ पूजादि चाह, धरि करत विविध-विध देह- दाह । आतम-अनात्म के ज्ञानहीन, जे जे करनी तन करन छीन ।। १४ ।। ते सब मिथ्याचारित्र त्याग, अब आतम के हित पन्थ लाग । जगजाल-भ्रमण को देह त्याग, अब 'दौलत' निज आतम सुपारा ।। १५ ।।
जिनेन्द्र अर्चना
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