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________________ तीसरी ढाल (जोगीरासा/नरेन्द्र छन्द) आतम को हित है सुख सो सुख, आकुलता बिन कहिए। आकुलता शिव माहिं न तातें, शिव-मग लाग्यो चहिए ।। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरन शिव-मग सो दुविध विचारो। जो सत्यारथ-रूप सो निश्चय, कारन सो व्यवहारो ।।१।। परद्रव्यन से भिन्न आप में, रुचि सम्यक्त्व भला है। आपरूप को जानपनो सो, सम्यग्ज्ञान कला है ।। आपरूप में लीन रहे थिर, सम्यक्चारित सोई। अब व्यवहार मोक्ष-मग सुनिये, हेतु नियत को होई ।।२।। जीव अजीव तत्त्व अरु आस्रव, बन्ध रु संवर जानो। निर्जर मोक्ष कहे जिन तिन को, ज्यों का त्यों सरधानो ।। है सोई समकित व्यवहारी, अब इन रूप बखानो। तिनको सुन सामान्य-विशेषं, दृढ़ प्रतीति उर आनो ।।३।। बहिरातम अन्तर-आतम, परमातम जीव त्रिधा है। देह-जीव को एक गिनै, बहिरातम तत्त्व मुधा है ।। उत्तम मध्यम जघन त्रिविध के, अन्तर आतम ज्ञानी । द्विविध संग बिन शुध-उपयोगी, मुनि उत्तम निजध्यानी ।।४।। मध्यम अन्तर आतम हैं जे, देशव्रती अनगारी। जघन कहे अविरत समदृष्टी, तीनों शिव मगचारी ।। सकल-निकल परमातम द्वैविध, तिन में घाति निवारी। श्री अरहंत सकल परमातम, लोकालोक निहारी ।।५।। ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्म-मल, वर्जित सिद्ध महन्ता। ते हैं निकल अमल परमातम, भोगें शर्म अनन्ता ।। बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर-आतम हजै । परमातम को ध्याय निरन्तर, जो नित आनन्द पूजै ।।६।। २६४ जिनेन्द्र अर्चना चेतनता बिन सो अजीव है, पंच भेद ताके हैं। पुद्गल पंच वरन रस गन्ध दो, फरस वसू जाके हैं ।। जिय पुद्गल को चलन सहाई, धर्मद्रव्य अनरूपी। तिष्ठत होय अधर्म सहाई, जिन बिन मूर्ति निरूपी ।।७।। सकल द्रव्य को वास जास में, सो आकाश पिछानों। नियत वर्तना निस-दिन सो, व्यवहारकाल परमानों ।। यों अजीव अब आस्रव सुनिये, मन-वच-काय त्रियोगा। मिथ्या अविरति अरु कषाय, परमाद सहित उपयोगा ।।८।। ये ही आतम को दुख कारण, तातै इनको तजिये। जीव प्रदेश बँधे-विधि सौं, सो बन्धन कबहुँ न सजिये ।। शम-दम तैं जो कर्म न आवै, सो संवर आदरिये । तप-बल तैं विधि-झरन निरजरा, ताहि सदा आचरिये ।।९।। सकल कर्म तैं रहित अवस्था, सो शिव थिर सुखकारी। इह विधि जो सरधा तत्त्वन की, सो समकित व्यवहारी ।। देव जिनेन्द्र, गुरु परिग्रह बिन, धर्म दयाजुत सारो। ये हु मान समकित को कारण, अष्ट अंगजुत धारो ।।१०।। वसु मद टारि निवारि त्रिशठता, षट् अनायतन त्यागो। शंकादिक वसु दोष बिना, संवेगादिक चित पागो ।। अष्ट अंग अरु दोष पचीसौं, तिन संक्षेपहु कहिये। बिन जाने तैं दोष-गुनन को, कैसे तजिये गहिये ।।११ ।। जिन-वच में शंका न धार, वृष भव-सुख-वांछा भान । मुनि-तन मलिन न देख घिनावै, तत्त्व कुतत्त्व पिछाने ।। निज-गुण अरु पर-औगुण ढाँके, वा जिन धर्म बढ़ावै । कामादिक कर वृषः चिगते, निज-पर को सुदिढ़ावै ।।१२।। धर्मी सों गौ-बच्छ प्रीति-सम, कर जिन-धर्म दिपावै । इन गुन ते विपरीत दोष वसु, तिनको सतत खिपावै ।। जिनेन्द्र अर्चना 10000 HINDI 133
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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