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राज समाज महा अघ कारण वैर बढ़ावनहारा । वेश्या-सम लक्ष्मी अति चंचल, याका कौन पतयारा ।।१३।। मोह महारिपु वैर विचारयो, जगजिय संकट डारे । तन काराग्रह वनिता बेड़ी, परिजन जन रखवारे ।। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरन तप, ये जिय के हितकारी। ये ही सार, असार और सब, यह चक्री चितधारी ॥१४ ।। छोड़े चौदह रत्न नवोनिधि, अरु छोड़े संग साथी। कोड़ि अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी लख हाथी ।। इत्यादिक सम्पति बहुतेरी, जीरण तृण-सम त्यागी। नीति विचार नियोगी सुत को, राज्य दियो बड़भागी।।१५।। होय निशल्य अनेक नृपति संग, भूषण वसन उतारे । श्री गुरु चरन धरी जिनमुद्रा, पंच महाव्रत धारे ।। धनि यह समझ सुबुद्धि जगोत्तम, धनि यह धीरजधारी। ऐसी सम्पत्ति छोड़ बसे वन, तिन पद धोक हमारी ।।१६।।
(दोहा) परिग्रह पोट उतार सब, लीनों चारित पन्थ । निज स्वभाव में थिर भये, वज्रनाभि निरग्रन्थ ।।
छहढाला (पं. दौलतरामजी कृत)
मंगलाचरण
(सोरठा) तीन भुवन में सार, वीतराग-विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं।।
पहली ढाल
(चौपाई) जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दुखतें भयवन्त । तारै दुखहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार ।।१।। ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्याण। मोह महामद पियौ अनादि, भूल आप को भरमत बादि।।२।। तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा। काल अनन्त निगोद मँझार, बीत्यो एकेन्द्रिय तन धार ।।३।। एक श्वास में अठ-दश बार, जन्म्यो-मस्यो भयो दुखभार । निकसि भूमि जल पावक भयो, पवन प्रत्येक वनस्पति थयो।।४।। दुर्लभ लहि ज्यौं चिंतामणी, त्यौं पर्याय लही त्रसतणी। लट पिपील अलि आदि शरीर, धर-धर मस्यो सही बहु पीर ।।५।। कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी द्वै क्रूर, निबल पशू हति खाये भूर ।।६।। कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अति दीन। छेदन-भेदन भूख पियास, भार-वहन हिम-आतप त्रास ॥७॥ बध-बन्धन आदिक दुःख घने, कोटि जीभौं जात न भने। अति संक्लेश भावतें मत्यो घोर श्वभ्र-सागर में पस्यो।।८।। तहाँ भूमि परसत दुःख इसो, बिच्छू सहस डसैं नहिं तिसो।
तहाँ राध-शोणित वाहिनी, कृमि-कुल कलित देह दाहिनी।।९।। जिनेन्द्र अर्चना जिनेन्द्र अर्चना 10000
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अरहन्त के प्रतिबिम्ब का वचन द्वार से स्तवन करना, नमस्कार करना, तीन प्रदक्षिणा देना, अंजुलि मस्तक चढ़ाना, जलचन्दनादिक अष्ट द्रव्य चढ़ाना; सो द्रव्यपूजा है। अरहंत के गुणों में एकाग्र चित्त होकर, अन्य समस्त विकल्प-जाल छोड़कर गुणों में अनुरागी होना तथा अरहंत के प्रतिबिम्ब का ध्यान करना; सो भाव पूजा है।
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जिनेन्द्र अर्चना
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