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अनंतानु जु बंधी जानो, प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानो। संज्वलन चौकड़ी गुनिये, सब भेद जु षोडश मुनिये ।।१२।। परिहास अरति रति शोक, भय ग्लानि तिवेद संयोग। पनबीस जु भेद भये इम, इनके वश पाप किये हम ।।१३।। निद्रावश शयन कराया, सुपने मधि दोष लगाया। फिर जागि विषय-वन धायो, नानाविध विष-फल खायो।।१४।। किये आहार निहार बिहारा, इनमें नहिं जतन विचारा। बिन देखा धरा उठाया, बिन शोधा भोजन खाया ।।१५।। तब ही परमाद सतायो, बहुविधि विकलप उपजायो। कछु सुधि बुधि नाहिं रही है, मिथ्यामति छाय गई है।।१६।। मरजादा तुम ढिंग लीनी, ताहू में दोष जु कीनी। भिन भिन अब कैसें कहिये, तुम ज्ञानविर्षे सब पइये ।।१७।। हा हा! मैं दुठ अपराधी, त्रस-जीवन-राशि विराधी। थावर की जतन न कीनी, उर में करुणा नहिं लीनी ।।१८।। पृथ्वी बहु खोद कराई, महलादिक जागां चिनाई। बिन गाल्यो पुनि जल ढोल्यो, पंखारौं पवन विलोल्यो ।।१९।। हा हा! मैं अदयाचारी, बहु हरितकाय जु विदारी। तामधि जीवन के खंदा, हम खाये धरि आनंदा ।।२०।। हा हा! परमाद बसाई, विन देखे अगनि जलाई। ता मध्य जीव जु आये, ते हू परलोक सिधाये ।।२१।। बींध्यो अन राति पिसायो, ईंधन बिन सोधि जलायो। झाड़ ले जागा बुहारी, चिंवटी आदिक जीव बिदारी ।।२२।। जल छानि जिवानी कीनी, सो हू पुनि डारि जु दीनी। नहिं जल-थानक पहुँचाई, किरिया बिन पाप उपाई ।।२३ ।। जल-मल मोरिन गिरवायो, कृमि-कुल बहु घात करायो। नदियन विच चीर धुवाये, कोसन के जीव मराये ।।२४ ।।
2200000 जिनेन्द्र अर्चना
अन्नादिक शोध कराई, तामधि जु जीव निसराई । तिनको नहिं जतन करायो, गलियारे धूप डरायो ।।२५।। पुनि द्रव्य कमावन काजे, बहु आरंभ हिंसा साजे । किये तिसनावश अघ भारी, करुना नहिं रंच विचारी ।।२६।। इत्यादिक पाप अनंता, हम कीने श्री भगवंता। संतति चिरकाल उपाई, वानी तैं कहिय न जाई ।।२७।। ताको जु उदय अब आयो, नानाविध मोहि सतायो। फल भुंजत जिय दुख पावै, वचनैं कैसें कहि जावे ।।२८ ।। तुम जानत केवलज्ञानी, दुःख दूर करो शिवथानी। हम तो तुम शरण लही है, जिन तारन विरद सही है।।२९।। जो गाँवपती इक होवे, सो भी दुखिया दुख खोवै । तुम तीन भुवन के स्वामी, दुख मेटहु अंतरजामी ।।३० ।। द्रौपदि को चीर बढ़ायो, सीता प्रति कमल रचायो। अंजन-से किये अकामी, दुख मेटहु अंतरजामी ।।३१ ।। मेरे अवगुन न चितारो, प्रभु अपनो विरद निहारो। सब दोषरहित करि स्वामी, दुख मेटहु अंतरजामी ।।३२ ।। इंद्रादिक पद नहिं चाहूँ, विषयनि में नाहिं लुभाऊँ। रागादिक दोष हरीजै, परमातम निज-पद दीजै ।।३३ ।।
(दोहा) दोषरहित जिनदेवजी, निजपद दीजे मोय । सब जीवन के सुख बढे, आनंद मंगल होय ।।३४ ।। अनुभव माणिक पारखी, 'जौहरि' आप जिनन्द। ये ही वर मोहि दीजिये, चरण शरन आनन्द ।।३५ ।।
निज स्वरूप को परम रस, जामें भरो अपार। बन्दूँ परमानन्दमय, समयसार अविकार ।।
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जिनेन्द्र अर्चना