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अमूल्य तत्त्व विचार (श्री युगलजी कृत)
(हरिगीतिका) बहु पुण्य-पुंज प्रसंग से शुभ देह मानव का मिला। तो भी अरे! भव चक्र का, फेरा न एक कभी टला ।।१।। सुख-प्राप्ति हेतु प्रयत्न करते, सुक्ख जाता दूर है। तू क्यों भयंकर भाव-मरण, प्रवाह में चकचूर है।।२।। लक्ष्मी बढ़ी अधिकार भी, पर बढ़ गया क्या बोलिये। परिवार और कुटुम्ब है क्या? वृद्धिनय पर तोलिये ।।३।। संसार का बढ़ना अरे! नर देह की यह हार है। नहिं एक क्षण तुझको अरे! इसका विवेक विचार है।।४।। निर्दोष सुख निर्दोष आनन्द, लो जहाँ भी प्राप्त हो। यह दिव्य अन्ततत्त्व जिससे, बन्धनों से मुक्त हो ।।५।। पर वस्तु में मूर्छित न हो, इसकी रहे मुझको दया। वह सुख सदा ही त्याज्य रे! पश्चात् जिसके दुख भरा ।।६।। मैं कौन हूँ? आया कहाँ से? और मेरा रूप क्या? सम्बन्ध दुखमय कौन है? स्वीकृत करूँ परिहार क्या ।।७।। इसका विचार विवेकपूर्वक, शान्त होकर कीजिये। तो सर्व आत्मिकज्ञान के, सिद्धान्त का रस पीजिये ।।८।। किसका वचन उस तत्त्व की, उपलब्धि में शिवभूत है। निर्दोष नर का वचन रे! वह स्वानुभूति प्रसूत है।।९।। तारो अरे! तारो निजात्मा, शीघ्र अनुभव कीजिये। सर्वात्म में समदृष्टि दो, यह वच हृदय लख लीजिये ।।१०।।
आलोचना पाठ (श्री जौहरीलालजी कृत)
(दोहा) बंदी पाँचों परम-गुरु, चौबीसों जिनराज । करूँ शुद्ध आलोचना, शुद्धिकरन के काज ।।१।।
(सखी छन्द) सुनिये जिन अरज हमारी, हम दोष किये अति भारी। तिनकी अब निर्वृत्ति काज, तुम सरण लही जिनराज ।।२।। इक बे ते चउ इन्द्री वा, मनरहित सहित जे जीवा । तिनकी नहिं करुणा धारी, निरदइ कै घात विचारी ।।३।। समरंभ समारंभ आरंभ, मन-वच-तन कीने प्रारंभ । कृत-कारित-मोदन करिकैं, क्रोधादि चतुष्टय धरिकैं।।४।। शत आठ जु इमि भेदन , अघ कीने परिछेदन” । तिनकी कहुँ कोलों कहानी, तुम जानत केवलज्ञानी ।।५।। विपरीत एकांत विनय के, संशय अज्ञान कुनय के। वश होय घोर अघ कीने, वचतै नहिं जाय कहीने ।।६।। कुगुरुन की सेवा कीनी, केवल अदयाकरि भीनी । या विधि मिथ्यात बढ़ायो, चहुँगति मधि दोष उपायो ।।७।। हिंसा पुनि झूठ जु चोरी, पर-वनितासों दृग जोरी।
आरंभ परिग्रह भीने, पन पाप जु या विधि कीने ।।८।। सपरस रसना घ्रानन को, चखु कान विषय-सेवन को। बहु करम किये मनमाने, कछु न्याय-अन्याय न जाने ।।९।। फल पंच उदुंबर खाये, मधु मांस मद्य चित चाहे। नहिं अष्ट मूलगुण धारे, सेये विषयन दुखकारे ।।१०।। दुइवीस अभख जिन गाये, सो भी निस दिन भुंजाये।
कछु भेदाभेद न पायो, ज्यों त्यों करि उदर भरायो ।।११।। जिनेन्द्र अर्चना/
एक देखिये, जानिये, रमि रहिये इक ठौर । समल, विमल न विचारिये, यही सिद्धि नहीं और ।।
2000 जिनेन्द्र अर्चना
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