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________________ मुनि चक्री शक्री के हिय में, जिस अनन्त का ध्यान रहे । गाते वेद पुराण जिसे वह, परम देव मम हृदय रहे ।। १२ ।। दर्शन - ज्ञान स्वभावी जिसने, सब विकार ही वमन किये। परम ध्यान गोचर परमातम, परम देव मम हृदय रहे ।। १३ ।। जो भवदुःख का विध्वंसक है, विश्व विलोकी जिसका ज्ञान। योगी जन के ध्यान गम्य वह, बसे हृदय में देव महान ।। १४ ।। मुक्ति-मार्ग का दिग्दर्शक है, जन्म-मरण से परम अतीत । निष्कलंक त्रैलोक्य-दर्शि वह, देव रहे मम हृदय समीप ।। १५ ।। निखिल - विश्व के वशीकरण जो, राग रहे ना द्वेष रहे। शुद्ध अतीन्द्रिय ज्ञानस्वरूपी, परम देव मम हृदय रहे ।। १६ ।। देख रहा जो निखिल - विश्व को, कर्मकलंक विहीन विचित्र । स्वच्छ विनिर्मल निर्विकार वह, देव करे मम हृदय पवित्र ।। १७ ।। कर्मकलंक अछूत न जिसका, कभी छू सके दिव्यप्रकाश । मोह - तिमिर को भेद चला जो, परम शरण मुझको वह आप्त ।। १८ ।। जिसकी दिव्यज्योति के आगे फीका पड़ता सूर्यप्रकाश । स्वयं ज्ञानमय स्व-पर प्रकाशी, परम शरण मुझको वह आप्त ।। १९ ।। जिसके ज्ञानरूप दर्पण में, स्पष्ट झलकते सभी पदार्थ । आदि-अन्त से रहित शान्त शिव, परमशरण मुझको वह आप्त ।। २० ।। जैसे अग्नि जलाती तरु को, तैसे नष्ट हुए स्वयमेव । भय-विषाद - चिन्ता सब जिसके, परम शरण मुझको वह देव ।। २१ ।। तृण, चौकी, शिल- शैल, शिखर नहीं, आत्मसमाधि के आसन । संस्तर, पूजा, संघ-सम्मिलन, नहीं समाधि के साधन ।। २२ ।। इष्ट-वियोग, अनिष्ट-योग में, विश्व मनाता है मातम । हेय सभी है विश्व वासना, उपादेय निर्मल आतम ।। २३ ।। जिनेन्द्र अर्चना २५०////// 126 बाह्य जगत कुछ भी नहीं मेरा, और न बाह्य जगत का मैं। यह निश्चय कर छोड़ बाह्य को, मुक्ति हेतु नित स्वस्थ रमें ।। २४ ।। अपनी निधि तो अपने में है, बाह्य वस्तु में व्यर्थ प्रयास । जग का सुख तो मृग-तृष्णा है, झूठे हैं उसके पुरुषार्थ ।। २५ ।। अक्षय है शाश्वत है आत्मा, निर्मल ज्ञानस्वभावी है। जो कुछ बाहर है, सब पर है, कर्माधीन विनाशी है ।। २६ ।। तन से जिसका ऐक्य नहीं, हो सुत-तिय-मित्रों से कैसे। चर्म दूर होने पर तन से, रोम समूह रहें कैसे ।। २७ ।। महा कष्ट पाता जो करता, पर पदार्थ जड़ देह संयोग । मोक्ष-महल का पथ है सीधा, जड़-चेतन का पूर्ण वियोग ।। २८ ।। जो संसार पतन के कारण, उन विकल्प-जालों को छोड़ । निर्विकल्प, निर्द्वन्द्व आतमा, फिर-फिर लीन उसी में हो । । २९ ।। स्वयं किये जो कर्म शुभाशुभ फल निश्चय ही वे देते। करें आप फल देय अन्य तो, स्वयं किये निष्फल होते ।। ३० ।। अपने कर्म सिवाय जीव को, कोई न फल देता कुछ भी । पर देता है यह विचार तज, स्थिर हो छोड़ प्रमादी बुद्धि ।। ३१ ।। निर्मल, सत्य, शिवं, सुन्दर है, 'अमितगति' वह देव महान । शाश्वत निज में अनुभव करते, पाते निर्मल पद निर्वाण ।। ३२ ।। **** * अयोग्य कार्य हुए हों तो लज्जित होकर उनको भविष्य में नहीं करने की प्रतिज्ञा करना । जिनेन्द्र अर्चना (२५१
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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