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शान्ति-पाठ (भाषा)
(हरिगीतिका) शास्त्रोक्त विधि पूजा महोत्सव, सुरपति चक्री करें। हम सारिखे लघु पुरुष कैसे, यथाविधि पूजा करें ।। धन-क्रिया-ज्ञान रहित न जाने, रीत पूजन नाथजी । हम भक्तिवश तुम चरण आगे, जोड़ लीने हाथजी ।।१।। दुःख-हरन मंगलकरन, आशा-भरन जिन पूजा सही। यह चित्त में श्रद्धान मेरे, शक्ति है स्वयमेव ही ।। तुम सारिखे दातार पाये, काज लघु जायूँ कहा। मुझ आप-सम कर लेहु स्वामी, यही इक वांछा महा ।।२।। संसार भीषण विपिन में, वसु कर्म मिल आतापियो। तिस दाहते आकुलित चिरतें, शान्तिथल कहुँ ना लियो ।। तुम मिले शान्तिस्वरूप, शान्ति सुकरन समरथ जगपती । वसु कर्म मेरे शान्ति कर दो, शान्तिमय पंचमगती ।।३।। जबलौं नहीं शिव लहूँ, तबलौं देह यह नर पावना । सत्संग शुद्धाचरण श्रुत अभ्यास आतम भावना ।। तुम बिन अनंतानंत काल गयो रुलत जगजाल में। अब शरण आयो नाथ युग कर, जोर नावत भाल मैं ।।४।।
(दोहा) कर प्रमाण के मान लें, गगन नपै किहि भंत । त्यों तुम गुण वर्णन करत, कवि पावे नहिं अंत ।।५।।
नीरव-निर्झर (श्री युगलजी कृत) सामायिक-पाठ
(वीरछन्द) प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणीजनों में हर्ष प्रभो। करुणा-स्रोत बहें दुखियों पर, दुर्जन में मध्यस्थ विभो ।।१।। यह अनन्त बल-शील आतमा, हो शरीर से भिन्न प्रभो। ज्यों होती तलवार म्यान से, वह अनन्त बल दो मुझको।।२।। सुख-दुख, वैरी-बन्धु वर्ग में, काँच-कनक में समता हो। वन-उपवन, प्रासाद-कुटी में, नहीं खेद नहिं ममता हो ।।३।। जिस सुन्दरतम पथ पर चलकर, जीते मोह मान मन्मथ । वह सुंदर-पथ ही प्रभु मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ ।।४ ।। एकेन्द्रिय आदिक प्राणी की, यदि मैंने हिंसा की हो। शुद्ध हृदय से कहता हूँ वह, निष्फल हो दुष्कृत्य प्रभो ।।५।। मोक्षमार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन, जो कुछ किया कषायों से। विपथ-गमन सब कालुष मेरे, मिट जायें सद्भावों से।।६।। चतुर वैद्य विष विक्षत करता, त्यों प्रभु! मैं भी आदि उपांत । अपनी निंदा आलोचन से, करता हूँ पापों को शान्त ।।७।। सत्य-अहिंसादिक व्रत में भी, मैंने हृदय मलीन किया। व्रत-विपरीत प्रवर्तन करके, शीलाचरण विलीन किया ॥८॥ कभी वासना की सरिता का, गहन-सलिल मुझ पर छाया। पी-पी कर विषयों की मदिरा, मुझमें पागलपन आया।।९।। मैंने छली और मायावी, हो असत्य आचरण किया। पर-निन्दा गाली चुगली जो, मुँह पर आया वमन किया ।।१०।। निरभिमान उज्ज्वल मानस हो, सदा सत्य का ध्यान रहे। निर्मल जल की सरिता-सदृश, हिय में निर्मल ज्ञान बहे।।११।।
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अपने दोषों के कारण एवं कर्त्ता तुम स्वयं ही हो, विश्व में अन्य कोई नहीं।
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जिनेन्द्र अर्चना
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