________________
शान्ति - पाठ (भाषा) (चौपाई) शांतिनाथ मुख शशि - उनहारी, शील-गुण-व्रत-संयमधारी । लखन एक सौ आठ विराजैं, निरखत नयन कमलदल लाजैं ।। पंचम चक्रवर्ति पद धारी, सोलम तीर्थंकर सुखकारी । इन्द्र- नरेन्द्र पूज्य जिन - नायक, नमो शांति-हित शांति विधायक ।। दिव्य विटप बहुपन की वरषा, दुन्दुभि आसन वाणी सरसा । छत्र चमर भामंडल भारी, ये तुव प्रातिहार्य मनहारी ।। शांति - जिनेश शांति सुखदाई, जगत पूज्य पूजौं शिर नाई । परम शांति दीजे हम सबको, पढ़ें तिन्हें पुनि चार संघ को ।। (वसन्ततिलका) पूजैं जिन्हें मुकुट - हार - किरीट लाके । इन्द्रादि देव अरु पूज्य पदाब्ज जाके ।। सो शांतिनाथ वर-वंश जगत प्रदीप । मेरे लिए करहिं शान्ति सदा अनूप ।। (इन्द्रवज्रा) संपूजकों को प्रतिपालकों को, यतीन को और यतिनायकों को । राजा - प्रजा - राष्ट्र - सुदेश को ले, कीजे सुखी हे जिन! शांति को दे ।।
(स्रग्धरा)
२४६
होवै सारी प्रजा को, सुख बलयुत हो, धर्मधारी नरेशा । होवे वर्षा समय पै, तिल भर न रहै, व्याधियों का अंदेशा ।। होवे चोरी न जारी, सुसमय वरते, हो न दुष्काल मारी । सारे ही देश धारैं जिनवर - वृष को, जो सदा सौख्यकारी ।। (दोहा) घातिकर्म जिन नाश करि, पायो केवलराज । शांति करो सब जगत में, वृषभादिक जिनराज ।। (मंदाक्रान्ता) शास्त्रों का हो पठन सुखदा, लाभ सत्संगति का । सद्वृत्तों का सुजस कहके, दोष ढाकूँ सभी का ।। बोलूँ प्यारे वचन हित के, आपका रूप ध्याऊँ । तौ लौं सेऊँ चरण जिनके, मोक्ष जौ लौं न पाऊँ ।।
जिनेन्द्र अर्चना
124
(आर्या)
तव पद मेरे हिय में, मम हिय तेरे पुनीत चरणों में । तब लौं लीन रहौं प्रभु, जब लौं पाया न मुक्ति-पद मैंने ।। अक्षर पद मात्रा से दूषित, जो कछु कहा गया मुझसे । क्षमा करो प्रभु सो सब, करुणाकरि पुनि छुड़ाहु भव दुख से । हे जगबन्धु जिनेश्वर ! पाऊँ तव चरण-शरण बलिहारी । मरण समाधि सुदुर्लभ, कर्मों का क्षय सुबोध सुखकारी ॥। (नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करें।)
(क्षमापना ) (दोहा)
बिन जाने वा जान के, रही टूट जो कोय । तुम प्रसाद तैं परम गुरु, सो सब पूरन होय ।। १ ।। पूजन विधि जानूँ नहीं, नहिं जानूँ आह्वान । और विसर्जन हू नहीं, क्षमा करहु भगवान ॥ २ ॥ मन्त्रहीन धनहीन हूँ, क्रियाहीन जिनदेव । क्षमा करहु राखहु मुझे, देहु चरण की सेव ॥ ३ ॥ तुम चरणन ढिंग आयके, मैं पूजूँ अति चाव। आवागमन रहित करो, मेटो सकल विभाव ॥४ ॥
नाथ
तुम्हारी पूजा में सब, स्वाहा करने आया। तुम् जैसा बनने के कारण, शरण तुम्हारी आया । टेक ॥। पंचेन्द्रिय का लक्ष्य करूँ मैं, इस अग्नि में स्वाहा । इन्द्र- नरेन्द्रों के वैभव की, चाह करूँ मैं स्वाहा । तेरी साक्षी से अनुपम मैं यज्ञ रचाने आया ।। १ ।। जग की मान प्रतिष्ठा को भी करना मुझको स्वाहा नहीं मूल्य इस मन्द भाव का, व्रत-तप आदि स्वाहा । वीतराग के पथ पर चलने का प्रण लेकर आया ।।२ ।। अरे जगत के अपशब्दों को, करना मुझको स्वाहा पर लक्ष्यी सब ही वृत्ती को, करना मुझको स्वाहा । अक्षय निरंकुश पद पाने और पुण्य लुटाने आया || ३ || तुम हो पूज्य पुजारी मैं, यह भेद करूँगा स्वाहा । बस अभेद में तन्मय होना, और सभी कुछ स्वाहा । अब पामर भगवान बने, यह सीख सीखने आया ||४ ||
जिनेन्द्र अर्चना
२४७