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मेरी भावना
(पं. जुगल किशोरजी मुख्तार 'युगवीर' कृत) जिसने राग-द्वेष- कामादिक जीते, सब जग जान लिया। सब जीवों को मोक्षमार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया ।। बुद्ध, वीर, जिन, हरि, हर, ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो । भक्तिभाव से प्रेरित हो, यह चित्त उसी में लीन रहो ॥ १ ॥ विषयों की आशा नहिं जिनके, साम्य-भाव धन रखते हैं। निज-पर के हित साधन में जो, निशि-दिन तत्पर रहते हैं ।। स्वार्थ-त्याग की कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते हैं। ऐसे ज्ञानी साधु जगत के, दुःख - समूह को हरते हैं ।। २ ॥ रहे सदा सत्संग उन्हीं का, ध्यान उन्हीं का नित्य रहे । उन ही जैसी चर्या में यह, चित्त सदा अनुरक्त रहे ।। नहीं सताऊँ किसी जीव को, झूठ कभी नहिं कहा करूँ । पर-धन- वनिता पर न लुभाऊँ, सन्तोषामृत पिया करूँ ॥ ३ ॥ अहंकार का भाव न रक्खूँ, नहीं किसी पर क्रोध करूँ। देख दूसरों की बढ़ती को, कभी न ईर्ष्याभाव धरूँ ।। रहे भावना ऐसी मेरी, सरल सत्य व्यवहार करूँ । बने जहाँ तक इस जीवन में, औरों का उपकार करूँ ॥४ ॥ मैत्री भाव जगत में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे । दीन-दुःखी जीवों पर मेरे, उर से करुणा-स्रोत बहे ।। दुर्जन क्रूर-कुमार्गरतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आये। साम्य-भाव रक्खूँ मैं उन पर ऐसी परिणति हो जाये ॥ ५ ॥ गुणीजनों को देख हृदय में मेरे, प्रेम उमड़ आये । बने जहाँ तक उनकी सेवा, करके यह मन सुख पाये ।।
होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आये । गुण-ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जाये || ६ ||
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जिनेन्द्र अर्चना
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कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी आये या जाये। लाखों वर्षों तक जीऊँ या, मृत्यु आज ही आ जाये ।। अथवा कोई कैसा ही भय, या लालच देने आये । तो भी न्याय मार्ग से मेरा, कभी न पद डिगने पाये ।।७ ॥ होकर सुख में मग्न न फूले, दुःख में कभी न घबराये । पर्वत नदी - श्मशान - भयानक, अटवी में नहिं भय खाये ।।
रहे अडोल - अकम्प निरन्तर, यह मन दृढ़तर बन जाये । इष्ट-वियोग- अनिष्ट योग में, सहनशीलता दिखलाये ॥८ ॥ सुखी रहें सब जीव जगत के, कोई कभी न घबरायें। बैर पाप अभिमान छोड़ जग, नित्य नये मंगल गायें ।। घर-घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत दुष्कर हो जायें । ज्ञान-चरित उन्नत कर अपना, मनुज - जन्म फल सब पायें ।। ९ ।। इति-भीति व्यापै नहिं जग में, वृष्टि समय पर हुआ करे। धर्म-निष्ठ होकर राजा भी, न्याय प्रजा का किया करे ।। रोग - मरी-दुर्भिक्ष न फैले, प्रजा शान्ति से जिया करे । परम अहिंसा-धर्म जगत में, फैल सर्व हित किया करे ।। १० ।। फैले प्रेम परस्पर जग में, मोह दूर ही रहा करे । अप्रिय कटुक-कठोर शब्द नहिं, कोई मुख से कहा करे ।। बनकर सब 'युगवीर' हृदय से देशोन्नति रत रहा करें। वस्तु स्वरूप विचार खुशी से, सब दुख-संकट सहा करें ।। ११ ।।
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मृत्यु से वस्तु दूर होती है और त्याग से वासना का अन्त होता है।
जिनेन्द्र अर्चना
वस्तु की
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