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दीपक-प्रकाश उजास उज्ज्वल, तिमिरसेती नहिं डरौं ।
संशय-विमोह-विभरम-तम-हर, जोर कर विनती करौं । ।सम्मेद.।। ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ-धूप परम-अनूप पावन, भाव पावन आचरौं ।
सब करम पुञ्ज जलाय दीज्यो, जोर-कर विनती करौं ।।सम्मेद.।। ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
बहु फल मँगाय चढ़ाय उत्तम, चार गतिसों निरवरौं ।
निह. मुकति-फल-देहु मोको, जोर कर विनती करौं । ।सम्मेद. ।। ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गन्ध अच्छत फूल चरु फल, दीप धूपायन धरौं ।
'द्यानत' करो निरभय जगतसों, जोर कर विनती करौं । सम्मेद. ।। ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो अयं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
(सोरठा) श्रीचौबीस जिनेश, गिरि कैलाशादिक नमों। तीरथ महाप्रदेश, महापुरुष निरवाणते ।।
(चौपाई १६ मात्रा) नमों ऋषभ कैलासपहारं, नेमिनाथ गिरनार निहारं । वासुपूज्य चम्पापुर वन्दौं, सन्मति पावापुर अभिनन्दौं ।। वन्दौं अजित अजित-पद-दाता, वन्दौं सम्भव भव-दुःख घाता। वन्दौं अभिनन्दन गण-नायक, वन्दी सुमति सुमति के दायक।। वन्दौं पद्म मुकति-पद्माकर, वन्दौं सुपास आश-पासहर । वन्दौं चन्द्रप्रभ प्रभु चन्दा, वन्दौं सुविधि सुविधि-निधि-कन्दा।। वन्दौं शीतल अघ-तप-शीतल, वन्दौं श्रेयांस श्रेयांस महीतल। वन्दौं विमल-विमल उपयोगी, वन्दौं अनन्त-अनन्त सुखभोगी।।
0000000000 जिनेन्द्र अर्चना
वन्दौं धर्म-धर्म विस्तारा, वन्दौं शान्ति, शान्ति मनधारा । वन्दौं कुन्थु, कुन्थु रखवालं, वन्दौं अर अरि हर गुणमालं ।। वन्दौं मल्लि काम मल चूरन, वन्दौं मुनिसुव्रत व्रत पूरन । वन्दौं नमि जिन नमित सुरासुर, वन्दौ पार्श्व-पास भ्रम जगहर।। बीसों सिद्धभूमि जा ऊपर, शिखर सम्मेद महागिरि भू पर । एक बार वन्दै जो कोई, ताहि नरक पशुगति नहिं होई ।। नरपति नृप सुर शक्र कहावै, तिहुँ जग भोग भोगि शिव पावै।
विघन विनाशन मंगलकारी, गुण-विलास वन्दौं भवतारी ।। ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णायँ नि. स्वाहा।
(घत्ता) जो तीरथ जावै, पाप मिटावै, ध्यावै गावै, भगति करै । ताको जस कहिये, संपति लहिये, गिरि के गुण को बुध उचरै।।
(पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्)
हे जिन तेरो सुजस उजागर, गावत हैं मुनिजन ज्ञानी ।।टेक ।। दुर्जय मोह महाभट जाने, निज वश कीने हैं जग प्रानी। सो तुम ध्यान कृपान पान गहिं, तत् छिन ताकी थिति हानी।।१।। सुप्त अनादि अविद्या निद्रा, जिन जन निज सुधि बिसरानी।
बै सचेत तिन निज निधि पाई, श्रवण सुनी जब तुम वानी ।।२।। मंगलमय तू जग में उत्तम, तू ही शरण शिवमग दानी। तुम पद सेवा परम औषधि, जन्म-जरा-मृत गद हानि ॥३॥ तुमरे पंचकल्याणक माहीं, त्रिभुवन मोह दशा हानी। विष्णुविदाम्बर जिष्णु दिगम्बर, बुध शिव कहि ध्यावत ध्यानी ।।४।। सर्व दर्व गुण परिजय परिणति, तुम सुबोध में नहिं छानी। तातें 'दौल' दास उर आशा, प्रकट करी निज रस सानी।।५।।
जिनेन्द्र अर्चना/100000000
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