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________________ प्रतिक्रमण प्रतिसरण आदि आठों प्रकार के विषकुम्भ । इनसे जो विपरीत वही हैं मोक्षमार्ग के अमृतकुम्भ ।। पुण्य भाव की भी तो इच्छा ज्ञानी कभी नहीं करता । परभावों से अरति सदा है निज का ही कर्ता धर्ता ।। कोई कर्म किसी जीव को है सुख-दुख दाता नहीं समर्थ । जीव स्वयं ही अपने सुख-दुख का निर्माता स्वयं समर्थ ।। क्रोध, मान, माया, लोभादिक नहीं जीव के किंचित् मात्र । रूप, गंध, रस, स्पर्श शब्द भी नहीं जीव के किंचित् मात्र ।। देह संहनन संस्थान भी नहीं जीव के किंचित् मात्र । राग-द्वेष- मोहादि भाव भी नहीं जीव के किंचित् मात्र ।। सर्वभाव से भिन्न त्रिकाली पूर्ण ज्ञानमय ज्ञायक मात्र । नित्य, ध्रौव्य, चिद्रूप, निरंजन, दर्शनज्ञानमयी चिन्मात्र ।। वाक् जाल में जो उलझे वह कभी सुलझ ना पायेंगे । निज अनुभव रसपान किये बिन नहीं मोक्ष में जायेंगे ।। अनुभव ही तो शिवसमुद्र है अनुभव शाश्वत सुख का स्रोत । अनुभव परमसत्य शिव सुन्दर अनुभव शिव से ओतप्रोत ।। निज स्वभाव के सन्मुख हो जा, पर से दृष्टि हटा भगवान । पूर्ण सिद्धपर्याय प्रकट कर आज अभी पा ले निर्वाण ।। ज्ञान- चेतना सिंधु स्वयं तू स्वयं अनन्तगुणों का भूप । त्रिभुवनपति सर्वज्ञ ज्योतिमय चिंतामणि चेतन चिद्रूप ।। यह उपदेश श्रवण कर हे प्रभु! मैत्री भाव हृदय धारूँ । जो विपरीत वृत्तिवाले हैं उन पर मैं समता धारूँ ।। धीरे-धीरे पाप-पुण्य शुभ-अशुभ आस्रव संहारूँ । भव-तन भोगों से विरक्त हो निजस्वभाव को स्वीकारूँ ।। दशधर्मों को पढ़ सुनकर अन्तर में आये परिवर्तन | व्रत उपवास तपादिक द्वारा करूँ सदा ही निज चिंतन ।। २९२//////// जिनेन्द्र अर्चना 107 राग-द्वेष अभिमान पाप हर काम क्रोध को चूर करूँ । जो संकल्प-विकल्प उठे प्रभु उनको क्षण-क्षण दूर करूँ ।। अणु भर भी यदि राग रहेगा नहीं मोक्ष पद पाऊँगा । तीन लोक में काल अनंता राग लिये भरमाऊँगा ।। राग शुभाशुभ के विनाश से वीतराग बन जाऊँगा । शुद्धात्मानुभूति के द्वारा स्वयं सिद्ध पद पाऊँगा ।। पर्यूषण में दूषण त्यागूँ बाह्य क्रिया में रमे न मन । शिव पथ का अनुसरण करूँ मैं बन के नाथ सिद्ध नन्दन ॥ जीव मात्र पर क्षमा भाव रख मैं व्यवहार धर्म पालूँ । निज शुद्धातम पर करुणा कर निश्चय धर्म सहज पालूँ ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा धर्मांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । (दोहा) मोक्ष मार्ग दर्शा रहा, क्षमावाणी का पर्व । क्षमाभाव धारण करो, राग-द्वेष हर सर्व ।। (पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्) जिनेन्द्र अर्चना भजन वन्दों अद्भुत चन्द्रवीर जिन, भविचकोर चित हारी। चिदानन्द अंबुधि अब उछरयो भव तप नाशन हारी। टेक ॥। सिद्धारथ नृप कुल नभ मण्डल, खण्डन भ्रम-तम भारी । परमानन्द जलधि विस्तारन, पाप ताप छ्य कारी ॥ १ ॥ उदित निरन्तर त्रिभुवन अन्तर, कीरत किरन पसारी । दोष मलंक कलंक अखकि, मोह राहु निरवारी ।। २ ।। कर्मावरण पयोध अरोधित, बोधित शिव मगचारी । गणधरादि मुनि उझान सेवत, नित पूनम तिथि धारी ॥ ३ ॥ अखिल अलोकाकाश उलंघन, जासु ज्ञान उजयारी । ‘दौलत’ तनसा कुमुदिनिमोदन, ज्यों चरम जगतारी ।।४।। १२१३
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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