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________________ कर्म बन्ध के चारों कारण मिथ्या अविरति योग कषाय। चेतयिता इनका छेदन कर, करता है निर्वाण उपाय ।। जो उन्मार्ग छोड़कर निज को निज में सुस्थापित करता। स्थितिकरण युक्त होता वह सम्यग्दृष्टी स्वहित करता ।।उत्तम. ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्मागाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। पुण्य-पापमय सभी शुभाशुभ योगों से रहता वह दूर। सर्व संग से रहित हुआ वह दर्शन ज्ञानमयी सुख पूर।। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरितधारी के प्रति गौ-वत्सल भाव। वात्सल्य का धारी सम्यग्दृष्टि मिटाता पूर्ण विभाव ।।उत्तम. ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधागाय मोक्षफलप्राप्तयेफलं निर्वपामीति स्वाहा। ज्ञानविहीन कभी भी पलभर ज्ञानस्वरूप नहीं होता। बिना ज्ञान के ग्रहण किए कर्मों से मुक्त नहीं होता।। विद्यारूपी रथ पर चढ़ जो ज्ञानरूप रथ चलवाता। वह जिन-शासन की प्रभावना करता शिवपथ दर्शाता । उत्तम. ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधौगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (दोहा) उत्तम क्षमा स्वधर्म को, वन्दन करूँ त्रिकाल । नाश दोष पच्चीस कर, काढूँ भव जंजाल ।। (ताटक) सोलहकारण पुष्पांजलि दशलक्षण रत्नत्रय व्रत पूर्ण । इनके सम्यक् पालन से हो जाते हैं वसुकर्म विचूर्ण ।। भाद्र मास में सोलहकारण तीस दिवस तक होते हैं। शुक्ल पक्ष में दशलक्षण पंचम से दस दिन होते हैं।। पुष्पांजलि दिन पाँच पंचमी से नवमी तक होते हैं। पावन रत्नत्रयव्रत अन्तिम तीन दिवस के होते हैं ।। २१०000000000000 जिनेन्द्र अर्चना आश्विन कृष्णा एकम् उत्सव क्षमावाणी का होता है। उत्तमक्षमा धार उर श्रावक मोक्षमार्ग को जोता है।। भाद्र मास अरु माघ मास अरु चैत्र मास में आते हैं। तीन बार आ पर्वराज जिनवर संदेश सुनाते हैं ।। 'जीवे कम्मं बद्धं पुटुं'' यह तो है व्यवहार कथन । है अबद्ध अस्पृष्ट कर्म से निश्चय नय का यही कथन ।। जीव-देह को एक बताना यह है नय व्यवहार अरे । जीव देह तो पृथक्-पृथक् हैं निश्चय नय कह रहा अरे।। निश्चय नय का विषय छोड़ व्यवहार माहिं करते वर्तन । उनको मोक्ष नहीं हो सकता और न ही सम्यग्दर्शन ।। 'दोण्हवि णयाण भणियं जाणई' जो पक्षातिक्रांत होता। चित्स्वरूप का अनुभव करता सकलकर्म मल को खोता ।। ज्ञानी ज्ञानस्वरूप छोड़कर जब अज्ञान रूप होता। तब अज्ञानी कहलाता है पुद्गल बन्ध रूप होता ।। 'जह विस भुव भुज्जतो वेज्जो' मरण नहीं पा सकता है। ज्ञानी पुद्गल कर्म उदय को भोगे बन्ध न करता है।। मुनि अथवा गृहस्थ कोई भी मोक्षमार्ग है कभी नहीं। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित ही मोक्षमार्ग है सही-सही ।। मुनि अथवा गृहस्थ के लिंगों में जो ममता करता है। मोक्षमार्ग तो बहुत दूर भव-अटवी में ही भ्रमता है।। १. समयसार, गाथा १४१ - जीव कर्म से बँधा है तथा स्पर्शित है। २. समयसार, गाथा १४३ - दोनों ही नयों के कथन मात्र को जानता है। ३.समयसार, गाथा १९४ - जिस प्रकार वैद्य पुरुष विष को भोगता, खाता हुआ भी। जिनेन्द्र अर्चना 106
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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