________________
१०८
जिन खोजा तिन पाइयाँ
सुखी जीवन से
१०९
(६९) जिस सिद्धान्त का सही ज्ञान हो जाता है, सही श्रद्धान हो जाता है, वह बारम्बार विचारों में आने लगता है, चिन्तन की प्रक्रिया में भी चढ़ जाता है; परिणाम यह होता है कि - उसका परिणमन भी धीरे-धीरे वैसा ही होने लगता है।
जब यह ज्ञान और श्रद्धान हो गया है कि - सम्पूर्ण परद्रव्य अन्य परद्रव्यों के लिए अकिश्चित्कर है तो फिर आत्मा का ज्ञानोपयोग उन निमित्तरूप परद्रव्यों में अटकेगा ही क्यों? कदाचित पूर्व संस्कारवश या पुरुषार्थ की कमी के कारण उपयोग बर्हिमुखी होगा भी तो श्रद्धा-ज्ञान सही होने से धीरे-धीरे पर कर्तृत्व के संस्कार भी ढीले पड़ेंगे ही।
(७०) वस्तुतः देखा जाय तो हमें वर या कन्या चुनने का अधिकार ही नहीं है। हम तो व्यर्थ की चिन्ता में दुबले हुये जा रहे हैं। जिन्हें सर्वज्ञ में श्रद्धा
और सर्वज्ञ की वाणी में विश्वास होता है, उनकी आकुलता नियम से कम होती ही है; क्योंकि सर्वज्ञ के ज्ञान और वाणी के अनुसार जब उनके संयोग सम्बन्ध का समय आता है, तब अन्य कारण कलाप भी सहज मिलते चले जाते हैं और सम्बन्ध हो जाते हैं।
जब हमने माता-पिता, भाई-बहिनें एवं पुत्र-पुत्रियों को चुना नहीं; जैसे मिल गये; उन्हें सहज स्वीकार कर लिये। वैसे ही वर-कन्या को भी सहज स्वीकार क्यों नहीं कर लेते? यहाँ मीन-मेख क्यों करते हैं?
(७२) विश्व में या लोक में जो भी द्रव्यगुण या पर्याय के रूप में पदार्थ विद्यमान हैं, वे सभी अपने आप में परिपूर्ण हैं और पूर्ण स्वतंत्र हैं। एक वस्तु में दूसरी वस्तु कभी नहीं मिलती। ऐसी पर के निषेधरूप सामर्थ्य प्रत्येक द्रव्य, गुण व पर्याय में अस्तिरूप से विद्यमान है; उसे ही यहाँ 'अभाव' नाम से कहा है। ये अभाव मूलतः चार प्रकार के होते हैं - १. प्रागभाव, २. प्रध्वंसाभाव, ३. अन्योन्याभाव एवं (४) अत्यन्ताभाव।
प्रागभाव - वर्तमान पर्याय का पूर्व पर्याय में अभाव प्रागभाव है। जैसे कि वर्तमान दही पर्याय का दूध में अभाव प्रागभाव है।
प्रध्वंसाभाव - वर्तमान पर्याय का आगामी पर्याय में अभाव प्रध्वंसाभाव है। जैसे कि छाछ में वर्तमान दही पर्याय का अभाव प्रध्वंसाभाव है।
अन्योन्याभाव - एक पुद्गल द्रव्य की वर्तमान पर्याय में दूसरे पुद्गल द्रव्य की वर्तमान पर्याय का अभाव अन्योन्याभाव है। जैसे कि - शिकंजी में नींबू की वर्तमान खटास का उसमें एकमेक रूप मिली चीनी की वर्तमान मिठास में अभाव है। ___ अत्यन्ताभाव - एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में अभाव अत्यन्ताभाव है। जैसे कि - जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य में परस्पर अत्यन्ताभाव है।
इन अभावों के समझने का लाभ यह है कि - 'दूसरा मेरा बुरा कर देगा' - हमारे अन्दर से ऐसा अनन्त भय निकल जाता है। दूसरा मेरा भला कर देगा' - ऐसी परमुखापेक्षिता की वृत्ति निकल जाती है। तथा मैं दूसरों का भला कर सकता हूँ - इस मिथ्या मान्यता से होने वाला अहंकार का अभाव होता है तथा मैं दूसरों का बुरा कर सकता हूँ, इस मान्यता से होने वाले क्रोध भाव का भी अभाव होता है।
अन्योन्याभाव के ज्ञान से भी स्वाधीनता का भाव जागृत होता है; क्योंकि जब एक पुद्गल की पर्याय, दूसरे पुद्गल की पर्याय से पूर्ण भिन्न एवं स्वतंत्र है तो फिर आत्मा से तो जुदी है ही।
जिसप्रकार स्व की अपेक्षा भाव (अस्तित्व) वस्तु का धर्म है, वस्तु का स्वरूप है; उसी प्रकार पर की अपेक्षा अभाव (नास्तित्व) भी वस्तु का धर्म है, वस्तु का स्वरूप है। इहलौकिक और पारलौकिक जीवन को सुखद बनाने में जितना योगदान वस्तुस्वातंत्र्य सिद्धान्त का है, वैसा ही महत्त्वपूर्ण योगदान चार अभावों का है।