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________________ ११० सुखी जीवन से १११ (७५) तत्त्वज्ञान से अनभिज्ञ अज्ञानीजनों के पास लौकिक सुखाभासों की एकलम्बी लिस्ट होती है, जिनकी पूर्ति का वे जीवनभर असफल प्रयास करते रहते हैं; परन्तु उनकी इच्छानुसार इनकी न कभी पूर्ति हुई है, न होने की सम्भावना ही है। कदाचित् भाग्योदय से पूर्ति हो भी जाय तो भी जब वे संयोग स्वयं सुख स्वरूप एवं सुखदाता हैं ही नहीं तो उनकी पूर्ति से जीवन सुखी होगा कैसे? जिन खोजा तिन पाइयाँ चारों अभावों के समझने से पूर्ण स्वाधीनता का भाव जागृत हो जाता है, परद्रव्यों से सभी प्रकार की आशा की चाह समाप्त हो जाती है। इसकारण न दीनता-हीनता का भाव रहता है और न भय एवं आशा ही रहती है। (७३) समाधि और 'समाधि-मरण' दोनों बिल्कुल अलग-अलग विषय हैं। जब समाधि की बात चले तो उसे 'मरण' से न जोड़ा जाये; क्योंकि दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। समाधि यदि वृक्ष है तो समाधिमरण उसका फल है। समाधिमरण के समय तो समाधिरूप वृक्ष में लगे समता के फल खाये जाते हैं। समाधि तो हमारा जीवन है, सुखी जीवन का नाम ही तो समाधि है, यह मृत्यु का सन्देश नहीं है। ऐसा सुखी जीवन जीने की कला का ज्ञान और उसका अभ्यास तो जीवन के मध्याह्न में ही करना होगा, यौवन में ही करना होगा; तभी तो हमें अन्त समय में सुख, शान्ति व समता के फल प्राप्त हो सकेंगे। ___ जो अपने जीवन के मध्याह्न में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को प्रीतिपूर्वक अपनायेंगे, अपने ज्ञायक स्वभाव का आश्रय करेंगे, उससे भ्रष्ट नहीं होंगे; वे ही समाधि के सुखद फल प्राप्त करेंगे। साम्यभावों से निष्कषाय भावों से, निराकुलता से समतापूर्वक सुखी जीवन जीने को ही 'समाधि' कहते हैं। (७४) जिन्होंने अपना जीवन तत्त्वज्ञान के बल पर भेद-विज्ञान के अभ्यास से निज आत्मा की शरण लेकर समाधिपूर्वक जिया हो, निष्कषाय भावों से, शान्त परिणामों से जीवन जिया हो और मृत्यु के क्षणों में देहादि से ममता त्यागकर समतापूर्वक देह त्यागने का संकल्प लिया हो, उनके उस देह त्यागने की क्रिया-प्रक्रिया को ही समाधि-मरण या मृत्यु महोत्सव कहते हैं। दुःख का लक्षण आकुलता है और आकुलता इच्छा होने पर होती है। इन संसारी जीवों के अनेक प्रकार की इच्छाएँ पायी जाती हैं, जिनकी पूर्ति त्रिकाल सम्भव नहीं है। आचार्यकल्प पण्डित टोडरमल ने चार प्रकार की इच्छाओं का कथन किया है - ___पाँचों इन्द्रियों के विषय-ग्रहण की इच्छा :- इसके सद्भाव में जब तक विषय सामग्री न मिले; तब तक मन व्याकुल रहता है। कषाय भावों के अनुसार कार्य करने की इच्छा :- इसके सद्भाव में जब तक कषायवश किसी का भला-बुरा करने की इच्छा पूर्ण न हो, तब तक यह जीव दुःखी व्याकुल रहता है। पापोदयजन्य इच्छा :- पापोदय-जन्य प्राकृतिक/अप्राकृतिक रोगों एवं क्षुधा-तृषा आदि की पीड़ा होने पर उन्हें दूर करने की इच्छा पापोदयजन्य इच्छा हैं। ___ पुण्योदयजन्य इच्छा :- इस इच्छा से नाना भोग-सामग्री एक साथ मिल भी जाय; परन्तु उन्हें एक साथ भोगना सम्भव नहीं होता। अतः हापडे मारता है और महादुःखी रहता है। प्राणियों का आशारूप गढूढा इतना बड़ा है, जिसमें समस्त विश्व का वैभव ऊँट के मुँह में जीरे' की भाँति अत्यल्प है, अणु मात्र है। जरा सोचो तो सही कि यदि बँटवारा करें तो किसे क्या मिलेगा? अतः विषयेच्छा व्यर्थ है। (५७)
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
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