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सुखी जीवन से
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वस्तुतः निमित्तरूप पर पदार्थ किसी भी पर के कार्य का वास्तविक कारण नहीं है। उसकी तो उपस्थिति होने के कारण व्यवहार से उसे कार्य का उपचरित कारण कहा जाता है।
जिन खोजा तिन पाइयाँ जिस सुख को हमने विभाव कहा है, वह इन्द्रियजनित सांसारिक सुख की बात है; जो है तो वास्तव में सुखाभास ही, परन्तु लोक में उसे भी सुख संज्ञा प्राप्त है। वह सांसारिक सुख पुण्य के उदय का फल है।
(६४) अनादिकाल से यह अज्ञानी जगत अपने सुख-दुःख का कर्तृत्व बाह्य निमित्त कारणों को ही मानकर उन पर ही दोषारोपण करके उनसे राग-द्वेष करता रहा है। इन्हें ही अपने भले-बुरे का कर्त्ता मानकर निरन्तर उनमें इष्टानिष्ट कल्पनाएँ करके राग-द्वेष की आग में जलता-भुनता रहा है।
वस्तुतः ये बाह्य संयोग तेरे दुःख के कारण नहीं हैं। तेरे सुख-दुःख के कारण तो तेरे द्वारा किए गये पुण्य-पाप कर्म हैं। इसतरह बाह्य संयोगों पर से दृष्टि हटवाकर अन्तरंग निमित्त कारणों पर लाये हैं; ताकि आमने-सामने की सीधी लड़ाई तो समाप्त हो एवं परिजनों-पुरजनों पर से राग-द्वेष भी कम हो।
जब-जब भी जीवों को क्रोधादि कषायें और पाँचों इन्द्रियों के विषयभोगने के भाव उत्पन्न होते हैं तो उनके निमित्त के रूप में हम अज्ञानीजन कोई बाह्य वस्तुओं को अथवा अपने मित्र-शत्रु, कुटुम्ब-परिवार, पड़ौसी एवं धंधे-व्यापार और राजकाज के सम्पर्क में आये व्यक्तियों को उसका कारण मानते हैं, क्योंकि निमित्त रूप में वे ही अपने आमने-सामने रहते हैं; इस कारण उन्हें देख-देख हम राग-द्वेष की ज्वाला में, क्रोधाग्नि में जलते रहते हैं तथा बदले की भावना से ओत-प्रोत होकर निरन्तर आकुलव्याकुल होते रहते हैं; जो भविष्य में भी अनन्त दुःख एवं कुगति के कारण बनते हैं। ___ जो विवेकी हैं, तत्वज्ञानी हैं; वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि यह क्रोधावेश तो क्षणिक विकारी पर्याय है, और अपने ही अज्ञान से हुई है। ___ यदि पर के द्वारा सुख-दुःख दिये जाते हों तो स्वयंकृत पुण्य-पाप सब निरर्थक सिद्ध होंगे। अतः परपदार्थों पर राग-द्वेष न करो।
वस्तु जैसी होती है, वैसी दिखती नहीं; जैसी दिखती है, वैसी परिणमती नहीं । वस्तु है स्वतंत्र, स्वाधीन और दिखती है परतंत्र, पराधीन, निमित्ताधीन । वस्तु दिखती है निमित्ताधीन और परिणमित होती है स्वाधीन अपने-अपने स्वकाल में अपने स्व-चतुष्टय से।
(६७) पानी शीतल क्यों है? अग्नि उष्ण क्यों हैं? यदि कोई यह पूछे तो इसका एक यही उत्तर होगा कि - इनका स्वभाव ही ऐसा है। इसमें क्यों/कैसे का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। इसीप्रकार प्रत्येक वस्तु पर से ऐसी निरपेक्ष है
और स्वयं में ऐसी परिपूर्ण है कि - उसे कार्यरूप परिणत होने के लिए किसी पर के सहयोग की किञ्चित् भी आवश्यकता नहीं होती।
दो द्रव्यों में सहज निमित्त-नैमित्तिक स्वतंत्र सम्बन्ध अति घने होते हैं, इस कारण वे पराधीन से प्रतीत होते हैं, परतंत्र दिखाई देते हैं; जबकि दो द्रव्यों के बीच अत्यन्ताभाव की वज्र की दीवार होती है, इसकारण द्रव्यों में एक-दूसरे का सहयोग करना सम्भव ही नहीं होता।
(६८) तत्त्वज्ञानी ऐसा जानते हैं कि दवा एवं रोग के बीच अन्योन्याभाव है तथा स्व-समय में ही रोग ठीक होगा; फिर भी उन्हें उनकी भूमिकानुसार रोगोपचार हेतु अनुकूल औषधि आदि निमित्त मिलाने का भाव भी सहज ही आता है। जिनके उपादान में स्वस्थ्य होने का समय आ जाता है, उन्हें बाहर में अनुकूल दवा का एवं योग्य डॉक्टर का निमित्त मिल जाता है तथा अंतरंग निमित्त कारण के रूप में वैसा ही पुण्योदय का योग बन जाता है तथा जिनका निरोग होने का स्वकाल नहीं आता - उनको वही दवा निरर्थक होती देखी जाती है।