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________________ इन भावों का फल क्या होगासे ७९ जिन खोजा तिन पाइयाँ केवल कथा-पुराण पढने का ही रिवाज रह गया था। बहत हआ तो त्यागी-व्रती व पण्डित वर्ग करणानुयोग के गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि की मोटी-मोटी चर्चा करके अपने में संतुष्ट हो लेते थे। इसतरह से अध्यात्म की धारा तो अवरुद्ध ही हो गई थी। इसकारण धर्मध्यान की सीमायें पुण्यपाप की धूप-छाँव तक ही सीमित होकर रह गई थीं, वीतराग के धर्मधाम की सीमायें पुण्य-पाप की धूप-छाँव तक ही सीमित होकर रह गई थीं, वीतराग के धर्मधाम तक पहुँच ही नहीं पाई। लौकिक बातें बताने को तो लौकिकजन ही बहुत हैं। धर्म पुरुषों से तो विशुद्ध धर्मोपदेश और तत्त्व की चर्चा ही अपेक्षित है। अन्यथा और कौन करेगा यह अध्यात्म की चर्चा? जिससे जैनधर्म जीवित है, जो जैनदर्शन का प्राण है। दया-दान, खान-पान, पूजा-पाठ आदि तो सभी दर्शनों में लगभग समान ही हैं। जैनधर्म की यदि कोई विशेषता है और जिसकारण वह अन्य दर्शनों से भिन्न है, वह तो एकमात्र अध्यात्म ही है। अतः इसकी चर्चा तो हर हालत में होना ही चाहिए। जिस दर्शन में समयसार, प्रवचनसार जैसे वस्तुस्वरूप के निरूपक; सर्वज्ञता, अकर्तृत्ववाद और वस्तुस्वातंत्र्य को सिद्ध एवं प्रसिद्ध करने वाले ग्रन्थराज हों और मोक्षमार्गप्रकाशक जैसा सन्मार्ग-दर्शक प्रकाश-स्तम्भ हो, वहाँ यह आध्यात्मिक दृष्टिहीनता का अंधकार क्यों? समझ में नहीं आता अध्यात्म की इस उर्वरा भूमि पर यह आध्यात्मिक दरिद्रता क्यों? आध्यात्मिक वातावरण की कमी का एकमात्र कारण अरुचि एवं अपरिचय ही है। इस दिशा में प्रयत्न किया जाये तो आशातीत लाभ हो सकता है। (४९) जैसे कोई व्यक्ति हीरा को तो पहचाने नहीं और कांच को ही हीरा मानकर कांच के बदले हीरे के दाम दे दे तो ठगाया ही जायेगा। उसीतरह कोई वीतराग-सर्वज्ञदेव को तो पहचाने नहीं और उनके स्थान पर रागीद्वेषी-मोही देव गति के देवों को अथवा अन्य अदेवों को देव मानकर भगवान की तरह पूजने-मानने लगे तो वीतरागतारूप हीरा तो उसके हाथ लगेगा नहीं, मोक्षरूपी रत्नत्रय का व्यापार तो होगा नहीं; राग-द्वेष-मोह के झमेले में ही उलझ जायेगा। (५०) जो स्वयं दुःखी हैं, वे हमें सुखी कैसे करेंगे? इसतरह वीतरागी देव से विपरीत रागी-द्वेषी देवगति के देवों को व अन्य अदेवों को मानने-पूजनेवाला धर्म के सही मार्ग पर नहीं है। ज्ञानानंदस्वभावी, अनादि-अनंत, अखंड-अनंत, चिन्मात्र ज्योति स्वरूप आत्मा के स्वरूप को तो जाने-पहचाने नहीं और इसके विपरीत जड़ देह व चेतन जीव को एक मानकर अथवा जड़ देह को ही चेतन जीव मानकर जीव को ज्ञानानंद स्वभाव के विपरीत सुखी-दुःखी, नाशवान, रागी-द्वेषी-मोही मान ले तो वह भी विपरीत मिथ्यादृष्टि है, क्योंकि उसने आत्मा के स्वरूप को यथार्थ न जानकर जीवतत्त्व की विपरीत श्रद्धा की। जो अजीवतत्त्व को अजीव न-मानकर शरीर की उत्पत्ति में अपनी आत्मा की उत्पत्ति, शरीर के नाश में आत्मा का नाश मानकर विपरीत श्रद्धा करते हैं; आस्रव एवं बंध तत्त्व जो दुःखदायी हैं, उनका सेवन करके आनन्द मानते हैं; संवर-निर्जरा जो सुखद व सुख स्वरूप हैं, उन्हें कष्टदायक मानते हैं; मोक्ष को कर्मबन्ध से मुक्ति के रूप में सिद्धस्वरूप न मानकर विभिन्न रूपों में आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को समाप्त हुआ ही मानते हैं - वे भी विपरीत मिथ्यादृष्टि हैं। लोक के समस्त पदार्थ या वस्तुयें अनंत धर्ममय हैं, अनंत गुणमय हैं, अनंतशक्तियों से सम्पन्न हैं। जो व्यक्ति वस्तुओं के ऐसे अनेकान्त स्वरूप न मानकर मात्र उनके किसी एक ही धर्म या स्वभाव को स्वीकार करते हैं, वे एकान्त मिथ्यादृष्टि हैं।
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
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