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________________ ८० इन भावों का फल क्या होगा से जिन खोजा तिन पाइयाँ आत्मा अनादि-अनन्त होने से नित्य भी है और प्रति समय परिणमन करने की अपेक्षा अनित्य या क्षणिक भी हैं; पर एकान्ततः या तो नित्य ही मानना या क्षणिक ही मानना तथा आत्मा की भाँति ही अन्य सब पदार्थों को भी एकांततः नित्य या अनित्य ही मानना एकान्त मिथ्यात्व है। लोक की सभी वस्तुओं में अस्ति-नास्ति, एक-अनेक, भिन्न-अभिन्न, सत्-असत् आदि परस्पर विरोधी अनेक धर्म (स्वभाव) हैं। उन्हें नय सापेक्ष न मानकर सर्वथा अस्तिरूप या नास्तिरूप ही मानना । एकान्ततः एकरूप ही अथवा अनेकरूप ही मानना; जबकि आत्मवस्तु अभेद अखण्ड होने से एक भी है और गुणभेद होने से अनेक भी है - पर एकान्त दृष्टि वाला ऐसा नहीं मानता। बस यही उसका एकान्त मिथ्यात्व है। __कोई व्यक्ति पुरुषार्थ का एकान्त करके अन्य समवायों का सर्वथा निषेध करते हैं तो कोई भाग्य के भरोसे ही बैठकर पुरुषार्थ का निषेध करते हैं, जबकि कार्य के होने में सभी समवायों का अपना-अपना स्थान है। हाँ, कथन में कहीं कोई एक मुख्य होता है तो कहीं कोई दूसरा । तीसरी बड़ी भूल विनय मिथ्यात्व के रूप में होती है। क्योंकि 'विनय' पाप भी है, पुण्य भी है और धर्म भी है। मिथ्यात्व में 'विनयमिथ्यात्व' सबसे बड़ा पाप, सोलहकारण भावना में 'विनयसम्पन्नता भावना' सबसे बड़ा पुण्य तथा तपों में 'विनय नामक तप' सबसे बड़ा धर्म है। तीनों में नाम साम्य होने से भ्रमित होने के अवसर अधिक हैं; अतः इन्हें अच्छी तरह समझकर विनय मिथ्यात्व छोड़ने योग्य है। रागी-द्वेषी एवं विषय-कषायों में रचे-पचे कुगुरु-कुदेव व कुधर्म को भी मानना-पूजना तथा वीतरागी देवों को भी मानना-पूजना; वीतरागी एवं रागी देवों एवं निर्ग्रन्थ व सग्रंथ गुरुओं को समान आदर देना - यह विनय मिथ्यात्व है। ऐसा करने से वीतरागी देव एवं निर्ग्रन्थ गुरु की सही समझ न होने से उनका अनादर तो होता ही है, भोले जीवों को भ्रमित होने और सन्मार्ग से भटक जाने के अवसर बहुत बढ़ते जाते हैं। कुछ लोग इसे धार्मिक उदारता हृदय की विशालता, सरलता आदि का जामा पहनाने का प्रयास करते हैं, जो ठीक नहीं हैं। किसी की निन्दा न करना, टीका-टिप्पणी न करना, विवादस्थ विषयों को न छेड़ना जुदी बात है और सबको एकसा आदर-सम्मान देना या पुज्यभाव रखना बिल्कुल जदी बात है। उदारता के नाम पर दोनों को एक कोटि में नहीं रखा जा सकता। धर्म की श्रद्धा बिल्कुल व्यक्तिगत विषय है, इसमें सामाजिक व राष्ट्रीय एकता के सूत्र कतई बाधक नहीं है। संशय मिथ्यादृष्टि सोचता है कि क्या पता कोई सर्वपदार्थों को प्रत्यक्ष जानने वाला सर्वज्ञ होता भी है या नहीं। हिताहित की परीक्षा रहित परिणाम ही अज्ञान मिथ्यात्व है। जिसके ऐसे विचार हों कि स्वर्ग-नरक एवं मोक्ष किसने देखा? पाप-पुण्य क्या चीज हैं? स्वर्ग-नरक सब कहने मात्र के हैं। धर्म भोले-भाले डरपोक लोगों को डराने-धमकाने व आतंकित करके, उन्हें ठगने का धंधा है। यह सोच अज्ञान मिथ्यात्व है। __पुण्य-पाप एवं धर्म-अधर्म से सर्वथा अनजान अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव इसप्रकार की बातें करके सर्वज्ञ एवं सर्वज्ञ कथित तत्त्वों का ही निषेध करते हैं तथा पाँचों पापों एवं पांचों इन्द्रियों के विषयों में स्वछन्द प्रवृत्ति करते हैं। भक्ष्य-अभक्ष्य का तथा नीति-अनीति का कुछ विवेक नहीं, देवअदेव-कुदेव का कुछ भी निर्णय नहीं; ऐसा अज्ञानरूप अभिप्राय अज्ञान मिथ्यात्व है। ___ यह पाँचों प्रकार का मिथ्यात्व गृहीत भी होता है और अगृहीत भी। इसके वश घोर पाप होता है। अतः सर्वप्रथम आगम के अभ्यास से इस मिथ्यात्व का समूल नाश करना होगा, तभी सन्मार्ग मिल सकेगा। (५१) जरा सोचिये - जन्म से ही हम सबकी शक्ल एक-सी नहीं है, अक्ल भी एक-सी नहीं है, आर्थिक और पारिवारिक परिस्थितियाँ भी एक-सी नहीं है। एक बालक, राजशाही ठाठ-बाट में पैदा हुआ, चाँदी के पालने में नहीं है। (४२)
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
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