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________________ ७० जिन खोजा तिन पाइयाँ कभी भी परमात्मा बन सकता है। (३४) देह को रोगी होने पर देह और आत्मा की भिन्नता और वस्तुस्वातंत्र्य के सिद्धान्त को सतत् याद रखना, अपने किए पापों के फल का विचार और संसार की असारता का बारम्बार स्मरण करना अत्यन्त आवश्यक है। अन्यथा पीड़ाचिन्तन आर्तध्यान का फल तो अधोगति ही है; क्योंकि इसमें परिणाम निरन्तर संक्लेशमय रहते हैं, जिनका फल नर्क एवं पशुगति है। जिनकी भली होनहार होती है, उनका ही पुरुषार्थ सही दिशा में सक्रिय होता है और इन्हें निमित्त भी तदनुकूल मिलते ही हैं। जिनकी भली होनहार हो उनको ऐसा विचार आता है कि 'मैं कौन हूँ? मेरा क्या स्वरूप है? यह चरित्र कैसे बन रहा है? ये जो मेरे भाव होते हैं, इनका क्या फल लगेगा?' इन भावों का फल क्या होगा से ही हैं। ___पापी से पापी व्यक्ति, चाहे वह बूचड़खानों में कसाई के करम करने वाला हो; दिन-रात, झूठ-फरेब, धोखा-धड़ी करने वाला हो; एक नम्बर का चोर ठग या डाकू हो, गुण्डा-बदमाश हो; ऐसा महालोभी हो कि पैसे को ही परमात्मा समझ बैठा हो; शराबी-कबाबी हो, सभी दुर्व्यसनों में लिप्त हो; वह भी अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार शक्ति प्रमाण धर्म के नाम पर कुछ न कुछ अवश्य करता है। चाहे वह कबूतरों को दाना चुगाने का रूप हो, चीटियों के बिलों में आटा बिखेरने का रूप हो, गायों को चारा देने का रूप हो, भले वह देवी-देवताओं के चित्रों के आगे अगरबत्ती जलाने का रूप ही क्यों न हो; पर सुबह-शाम दोनों संध्याओं के समय कुछ न कुछ करेगा अवश्य, तभी अपने-अपने धंधे पर जायेगा। पर बिना विवेक के यह सब करने से कोई लाभ नहीं होता। यह सब तो कोरी आत्मसंतुष्टि मात्र है। स्वयं को धोखे में रखना है। पाप-परिणति किसी भी कारण हो, उससे पापबंध तो होगा ही होगा। आजीविका आदि का बहाना उस पापबंध से नहीं बचा सकता। (३८) धर्म प्रदर्शन की वस्तु नहीं, धर्म तो आत्मदर्शन का नाम है; जिसका विस्तृत विवेचन जैन दर्शन में है। केवल जैनकुल में जन्म ले लेने से और धर्मायतनों के निर्माण में धन दे देने से भी धर्म उपलब्ध होने वाला नहीं है। उसके लिए स्वयं को जैनदर्शन का अध्ययन स्वाध्याय तो करना ही होगा, तभी इस लोक में और परलोक में भी सुख मिल सकेगा। लोकोपकारी कार्यों को देखकर लोक भले ही इसकी देह को ससम्मान चंदन की चिता से जलायें, बड़े-बड़े नेता इसकी श्रद्धांजलि सभायें करें और उनमें इसके इन कार्यों का गुणगान करें; पर इन सबसे इसके आत्मा को क्या लाभ होगा? कुछ भी नहीं। (३९) व्यक्ति जिसे अपना सौभाग्य समझे बैठा है, भाग्योदय माने बैठा है; यह मूढ़ जगत थोड़ी सी लौकिक अनुकूलता में कपोल-कल्पित सुख मानकर बैठा है और इन्हें ही अपनी भली होनहार मानता है; जबकि ये सब क्षणिक संयोग है। एकक्षण में ही इन सभी अनुकूलताओं को प्रतिकूलताओं में पलटते देर नहीं लगती। यह कैसी भली होनहार है, जो पल भर में बुरी होनहार में पलट जाती है? सच्चे धर्मात्मा तो सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की शरण प्राप्त होने को ही अपना भाग्योदय मानते हैं? धर्म की रुचि एवं तत्त्व को समझने की जिज्ञासा जगने को ही अपना अति पुण्य का उदय, धन्य जीवन और भली होनहार मानते हैं। भारतीय भूमि पर जन्में मानवों में धर्म का ज्ञान हो या न हो, वे धर्म के सही स्वरूप को जानते हों या न जानते हों, वे धर्मात्मा हों या न हों; पर धर्म करने की भावना एवं धर्मात्मा बनने की भावना तो प्रायः सभी में रहती ही है और अपनी-अपनी समझ के अनुसार प्रायः सभी धर्म साधन भी करते (३७)
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
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