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________________ इन भावों का फल क्या होगा से ७३ जिन खोजा तिन पाइयाँ वही उसके लिए दुर्भाग्य बनकर क्रूर काल बनकर उसे कब धर दबोचेगा - इसकी उसे कल्पना भी नहीं है। उसे नहीं मालूम कि यह परिग्रहानन्दी रौद्रध्यान उसे किस नर्क के गर्त में धकेल देगा। (४०) बड़ा सेठ, बड़ा विद्वान, बड़ा नेता या बड़ा अभिनेता कोई भी बड़ा नामधारी व्यक्ति हो, यदि वह तत्त्वज्ञान विहीन है तो उसे बड़प्पन नाम की बीमारी हो ही जाती है। फिर वे छोटे विद्वानों की, छोटे साधुओं की, छोटे प्रवचनकारों की उपेक्षा करने लगता है, भले ही वे छोटे, उससे बुद्धिबल में, ज्ञान-वैराग में बढ़े-चढ़े ही क्यों न हों? बड़े लोगों का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह होता है कि उनके तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के अवसर दुर्लभ हो जाते हैं। ये बड़े लोग छोटे विद्वान से तत्त्व की बात कैसे सुन सकते हैं? भले ही स्वयं को उस विषय का काला अक्षर भैंस बराबर ही क्यों न हो? उनका यह बनावटी 'बड़प्पन' उनके तत्त्वज्ञान में सबसे बड़ी बाधा बन जाता है। ___ जब तक कोई किसी बड़े कार्यक्रम में अतिथि-विशेष बनाकर इन बड़े लोगों को न बुलाये, तब तक वे वहाँ जा नहीं सकते, बड़े आदमी जो ठहरे। बुलाये जाने पर पहुँच जाने के बाद भी वहाँ पूरे समय नहीं ठहरते। उन्हें लगता है, अधिक देर तक रुकने से कहीं छोटा न समझ लिया जाऊँ। वे छोटे-छोटे विद्वान की पहचान उनके आगम ज्ञान या तत्त्वज्ञान से नहीं; बल्कि उनके सामाजिक प्रभाव से करते हैं, उनके अनुयायियों या प्रशंसकों की संख्या से करते हैं। अथवा कौन उन्हें कितना सम्मान दिला सकता है? इससे करते हैं। ये हैं उनके विद्वानों को बड़ा मानने के मापदण्ड। पर ये सब तो पुण्याधीन हैं। इनसे तत्त्वज्ञान का क्या संबंध? यद्यपि तत्त्वज्ञान के प्रचार-प्रसार में सातिशय पुण्योदय का भी योगदान होता है, पर ऐसा तत्त्वज्ञान और पुण्योदय का मणिकांचन योग तो विरले विद्वान वक्ताओं के ही होता है। अरे! तत्त्व जिज्ञासुओं को सबको सुनना चाहिए। (४१) जब कोई व्यक्ति दो-चार दिन की यात्रा पर घर से बाहर जाता है तो वह नाश्ता-पानी और पहनने-ओढ़ने के कपड़ों की व्यवस्था करके तो जाता ही है। कब कहाँ ठहरना है, वहाँ क्या व्यवस्था होगी? इसका भी पहले से ही पूरा सुनियोजन करता है और करना भी चाहिए। अन्यथा जो परेशानियाँ होती हैं, उनसे कोई अनजान नहीं है। ___जब ट्रेन में एक रात बिताने के लिए महीनों पहले से रिजर्वेशन कराये जाते हैं, सौ-सौ रुपये अतिरिक्त देने पड़ें तो वे भी देते हैं, पाँच-पाँच हजार रुपया रोज के पंच सितारा होटलों में महिनों पहले कमरे बुक कराते हैं; तो हमारी समझ में यह बात क्यों नहीं आती कि इस जन्म से अगले जन्मों की अनन्तकालीन लम्बी यात्रा करने के लिए भी कहीं/कोई रिजर्वेशन की जरूरत होती है? जिसका रिजर्वेशन इस धूल-मिट्टी के धन से नहीं, बल्कि धर्म के धन से होता है। (४२) अरे भाई! साठ-सत्तर साल के इस मानव जीवन को सुखी बनाने के लिए जब हमें दिन-रात के २४ घण्टे भी कम पड़ते हैं तो उसकी तुलना में अनन्तकाल के भावी जीवन की लम्बी यात्रा के बारे में हम क्यों नहीं सोचते कि उसको सुखमय बनाने के लिए हम क्या कर रहे हैं? और जो भी धर्म के नाम पर कर रहे हैं, क्या वह पर्याप्त है? क्या वह सही है? इसका भी लेखाजोखा कभी किया है हमने? (४३) भविष्य को सुखमय बनाने की बात तो बहुत दूर की है, अभी तो वर्तमान के सुखाभास के चक्कर में ही हम आर्त-रौद्रध्यान करके अपने भविष्य को अंधकूप में धकेलने का ही काम कर रहे हैं। सचमुच अपने शेष जीवन का एक क्षण भी अब राग-रंग में, विषय (३८)
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
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